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________________ 60 श्राद्धविधि प्रकरणम् किया।' इस प्रकार सुरसुन्दर अत्यन्त पश्चात्तापकर, मुनिराज से क्षमा मांग, व्रत लेकर क्रमशः स्त्रियों सहित स्वर्ग में गया। सुदर्शन श्रेष्ठि श्रावक की तरह जो सम्यक्त्वमूल पांच अणुव्रत तथा उत्तरगुण अर्थात् तीन गुणव्रत और चार शिक्षा व्रत ऐसे बारह व्रत धारणकरे, वह ३ उत्तरगुणश्रावक है। अथवा सम्यक्त्वमूल बारह व्रत को धारण करे, वह व्रतश्रावक है। तथा आनन्द, कामदेव, कार्तिकश्रेष्ठि इत्यादिक की तरह जो सम्यक्त्वमूल बारहव्रत तथा सर्वसचित्त परिहार, एकाशन पच्चक्खाण, चौथाव्रत, भूमिशयन, श्रावकप्रतिमादिक और दूसरे विशेष अभिग्रह को धारण करता हो तो वह भाव से ३ उत्तरगुण श्रावक है। बारहव्रत में एक,दो इत्यादि व्रत अंगीकार करे तो भी भाव से व्रतश्रावकपन होता है। यहां बारहव्रत के एकेक, द्विक, त्रिक, चतुष्क इत्यादि संयोग से द्विविध त्रिविध इत्यादि भंग तथा उत्तरगुण और अविरति रूप दो भेद मिलाने से श्रावकव्रत के सब मिलकर तेरह सौ चौरासी करोड़ बारह लाख सत्यासी हजार दो सौ दो भंग होते हैं। त्रिविध का समाधान : शंकाः श्रावक व्रत में त्रिविध त्रिविध इत्यादि भंगों का भेद क्यों नहीं सम्मिलित हुआ? समाधान : श्रावक स्वयं ने पूर्व में किये हुए अथवा पुत्रादिक ने किये हुए आरंभिक कार्य में अनुमति का निषेध नहीं कर सकता, अतएव त्रिविध-त्रिविध भंग नहीं लिया गया। प्रज्ञप्त्यादि ग्रंथ में श्रावक को त्रिविध त्रिविध पच्चक्खाण भी कहा है, वह विशेषविधि है। यथा-जो श्रावक दीक्षा लेने की ही इच्छा करता हो, परंतु केवल पुत्रादिक संतति का पालन करने के हेतु ही गृहवास में अटक रहा हो वही त्रिविध त्रिविध प्रकार से श्रावक प्रतिमा का अंगीकार करते वक्त पच्चक्खाण करे, अथवा कोई श्रावक स्वयंभूरमण समुद्र में रहनेवाले मत्स्य के मांसादिक का किंवा मनुष्य क्षेत्र से बाहर स्थूलहिंसादिक का किसी अवस्था में पच्चक्खाण करे तो वही त्रिविधत्रिविध भंग से करे। इस प्रकार त्रिविध-त्रिविधका विषय बहुत अल्प होने से वह यहां कहने की आवश्यकता न रखी। महाभाष्य में भी कहा है कि, बहुत से कहते हैं कि, 'श्रावक को त्रिविध-त्रिविध पच्चक्खाण नहीं है' परंतु ऐसा नहीं, कारण कि, पन्नत्ति में विशेष आश्रय से त्रिविध-त्रिविध का कथन किया है। कोई श्रावक विशेष अवस्था में स्वयंभूरमण समुद्र के अंदर रहनेवाले मत्स्य के मांस की तरह मनुष्य क्षेत्र से बाहर हस्तिदंत, सिंहचर्म, इत्यादि न मिल सके ऐसी वस्तु का अथवा कौवे का मांस आदि प्रयोजन रहित वस्तु का पच्चक्खाण त्रिविध-त्रिविध प्रकार से करे तो दोष नहीं। बहुत से यह कहते हैं कि कोई पुरुष दीक्षा लेने को तत्पर हो, तो भी केवल पुत्रादि संतति का रक्षण करने के ही हेतु से (दीक्षा न लेकर) ग्यारहवीं श्रावक प्रतिमा प्राप्त करे तो उसे भी त्रिविध-त्रिविध पच्चक्खाण होता है।'
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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