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________________ 40 श्राद्धविधि प्रकरणम् की तत्त्वगर्भित-वाणी सुनकर शंखदत्त शांत हुआ। श्रीदत्त ने उसे प्रीतिपूर्वक हाथ पकड़कर अपने पास बिठाया । वैर दूर करने की यही रीति है। पश्चात् श्रीदत्त ने केवली भगवान् से पूछा कि, 'हे स्वामिन्! यह समुद्र में से यहां किस तरह आया ?" केवली भगवान ने कहा, 'जिस समय तूने इसे समुद्र में फैंका उस समय क्षुधा पीड़ित मनुष्य को फल की तरह इसे एक पाटिया मिल गया। बिना आयुष्य पूर्ण हुए कभी मृत्यु नहीं हो सकती । उत्तम वैद्यक औषधोपचार से जैसे मनुष्य दुःसाध्य व्याधि से भी सात ही दिन में मुक्त हो जाता है वैसे ही वायु के अनुकूल होने से पाटिये के सहारे यह सात दिन में किनारे पहुंच गया, और किनारे पर बसे हुए सारस्वत नगर में इसने विश्राम किया। इस नगर में इसका संवर नामक मामा रहता था उसने इसे इस दशा में देखकर बहुत खेद प्रगट किया और बड़े प्रेम से अपने घर ले गया। समुद्र की उष्णता से इसके सब अवयव जल गये थे। संवर ने उत्तमोत्तम औषधियों द्वारा एक मास में इसे ठीक किया। एक समय इसने अपने मामा से सुवर्णकूल बंदर का हाल पूछा तो उसने इस तरह वर्णन किया कि, 'यहां से अस्सी कोश दूर सुवर्णकूल बंदर है। सुना है कि आज कल वहां किसी श्रेष्ठि के बड़े-बड़े जहाज आये हैं।' यह सुनते ही इसके मन में नट की तरह हर्ष तथा रोष एक ही साथ उत्पन्न हुआ अर्थात तेरा पता लग जाने से तो हर्ष हुआ और तेरी कपट चेष्टा का स्मरण होने से रोष पैदा हुआ। इस प्रकार मन में. परस्पर विरुद्ध भाव धारणकर मामा की आज्ञा लेकर यह यहां आया। पूर्व कर्म के अनुसार इसी प्रकार जीव का संयोग वियोग होता है।' इतना कहकर केवली भगवान् ने शंखदत्त को भी पूर्व भव का सब सम्बंध कह सुनाया और कहा कि, 'हे शंखदत्त ! पूर्व भव में तूने इसे मारने की इच्छा की थी इसी कारण इसने इस भव में तुझे मारने की इच्छा की। जिस तरह अपशब्द का बदला अपशब्द (गाली) कहने से पूरा होता है वैसे घात प्रतिघात का बदला चुक गया। अब तुम परस्पर बहुत प्रीति रखना, क्योंकि मित्रता इस लोक तथा परलोक में भी सर्व कार्यों की सिद्धि करने वाली है, इसमें संशय नहीं।' यह वचन सुनकर दोनों ने परस्पर अपने-अपने अपराधों की क्षमा मांगी और पूर्ववत् प्रीति रखने लगे। ग्रीष्म ऋतु के अंत में आयी हुई प्रथम जलवृष्टि के समान सद्गुरु के वचन से क्या नहीं हो सकता? तत्पश्चात् केवली भगवान् ने उपदेश दिया कि, 'हे भव्य जीवो! तुम समकित पूर्वक जैनधर्म की आराधना करो। जिससे तुम्हारे संपर्ण इष्टकार्यों की सिद्धि होगी।' धर्माः 'परे परा अप्याम्रादिकवत्फलन्ति नियतफलैः । जिनधर्मस्त्वखिलविधोऽप्यखिलफलैः कल्पफलद इव ||१|| · अन्य धर्मों का चाहे अच्छी तरह आराधन किया हो परन्तु वे केवल आमआदि १. अन्ये २. उत्कृष्टाः
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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