SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 385 श्राद्धविधि प्रकरणम् अरिहंतादि चारों का शरण स्वीकार करना, ६ किये हुए दुष्कृत की निंदा करना,७ किये हुए शुभकर्मों की अनुमोदना करना,८ शुभ भावना करना, ९ अनशन ग्रहण करना,१० पंचपरमेष्ठि नवकार की गणना करना। ऐसी आराधना करने से यद्यपि उसी भव में सिद्धि नहीं हो, तथापि शुभ देवभव तथा शुभ मनुष्यत्व पाकर आठ भव के अंदर सिद्ध हो ही जाता है। कारण कि, चारित्रवान् सात अथवा आठ भव से अधिक भवग्रहण नहीं करता ऐसा आगमवचन है। (वर्तमान में जो अंत समय की आराधना में यह सब सुनाया जाता है।) उपसंहार - (मूल गाथा) एअंगिहिधम्मविहि, पइदिअहं निव्वहंति जे गिहिणो। इहभवि परभवि निव्वुइसुहं लहुं ते लहन्ति धुवं ॥१७॥ - संक्षेपार्थः जो श्रावक प्रतिदिन इस ग्रंथ में कही हुई श्रावक धर्म की विधि को आचरे, वह श्रावक इसभव में, परभव में अवश्य ही शीघ्र मुक्ति सुख पाता है। विस्तारार्थ : उपरोक्त दिनकृत्य आदि छः द्वारवाली श्रावक धर्मविधि को जो श्रावक निरन्तर सम्यक् प्रकार से पाले, वे वर्तमान भव में रहकर सुख पाते हैं, और परलोक में सात आठ भव के अन्दर परम्परा से मुक्तिसुख शीघ्र व अवश्य पाते हैं। इति श्री रत्नशेखरसूरि विरचित श्राद्धविधिकौमुदी का हिंदिभाषा का जन्मकृत्य प्रकाशनामक षष्ठ: प्रकाशः संपूर्णः इति श्राद्धविधि का हिंदी भाषांतर समाप्त ॥
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy