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श्राद्धविधि प्रकरणम् कि... 'तोता मैना आदि तिर्यंच के साथ क्रीड़ा करने से अनर्थ उत्पन्न होता है।' यह सत्य है। धर्मपरायण होते हुए भी राजा जितारि की इस क्रीड़ा से ऐसी दुर्गति हुई, इससे जीव की विचित्रगति और जिनभाषित स्याद्वाद स्पष्ट प्रकट होता है। यद्यपि शत्रुजय तीर्थ की यात्रा करने से मनुष्य के नारकी तथा तिर्यंच इन दो दुर्गतियों को प्राप्त करनेवाले अशुभ कर्म का क्षय होता है तथापि क्षय होने के बाद भी जो वह अशुभ कर्म का संचय करे तो अवश्य भोगना पड़ता है। इससे तीर्थका माहात्म्य लेश मात्र भी कम नहीं होता, कारण कि वैद्य के द्वारा निरोग कर देने पर भी यदि कोई अपथ्य का सेवन कर रोगी हो जाय तो उसमें वैद्य का क्या दोष? पूर्वभव के दुर्दैव वश उत्पन्न हुए कुध्यान से राजा जितारि तिर्यंच-योनि में गया तो भी थोड़े ही काल में उसे कल्याणकारी श्रेष्ठ समकित प्राप्त होगा।
तत्पश्चात् राजा का अग्नि संस्कारादिक उत्तर कार्य हो जाने पर हंसी और सारसी दोनों रानियों ने उसी दिन दीक्षा ली, और अंत में मृत्यु पाकर वे स्वर्ग में देवियां हुई। अवधिज्ञान से जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि उनका पति तिर्यंच-योनि में तोता हुआ है तब बड़े खेद से उन्होंने वहां आकर उसे प्रतिबोधित किया व उसी तीर्थ पर उससे अनशन करवाया। वह तौता मृत्यु पाकर उन्हीं देवियों का स्वामी देव हुआ। कालक्रम से प्रथम वे दोनों देवियां स्वर्ग से च्युत हुई। तब उस देव ने केवली भगवान् से पूछा कि, 'हे प्रभो! मैं सुलभबोधि हूं कि दुर्लभबोधि?' केवली भगवान् ने उत्तर दिया, 'तू सुलभबोधि है।' पुनः उसने पूछा, 'यह बात किस प्रकार है सो समझाइए।' केवली ने कहा कि, 'जो तेरी दोनों देवियां स्वर्ग से च्यवन हुई हैं उनमें हंसी का जीव तो क्षितिप्रतिष्ठित नगर में ऋतुध्वज राजा का पुत्र मृगध्वज राजा हुआ है, और सारसी का जीव पूर्वभव में माया करने से काश्मीर देश के अंदर विमलाचल के पास एक आश्रम में गांगलि ऋषि की कमलमाला नामक कन्या हुई है। तू उनका जातिस्मरणज्ञान वाला पुत्र होगा।'
श्रीदत्त मुनि कहते हैं कि, 'हे मृगध्वज राजन्! केवली के मुख से यह बात सुनकर राजा जितारि (तोते) का जीव देव समान मधुर वचन से तुझे उस आश्रम में ले गया, वहां तुझे कन्या को पहनाने के लिए वस्त्रालंकारादि दिये, वापस तुझे लाकर तेरी सेना में सम्मिलित किया और पश्चात् वह स्वर्ग में गया। वहां से च्युत होकर अब यह तेरा पुत्र हुआ है। इसने अपना वर्णन सुनकर जातिस्मरण ज्ञान पाकर विचार किया कि, 'पूर्वभव में जो मेरी दो स्त्रियां थी वही इस भव में मेरे माता-पिता हुए हैं, अब मैं उनको 'हे तात! हे मात' यह किस प्रकार कहूं? इससे मौन धारण करना ही उत्तम है' इस विचार से कुछ भी दोष न होने पर भी इसने आज तक मौन साधन किया और अभी गुरु का वचन उल्लंघन न करना यह सोचकर बोलने लगा। पूर्वभव के अभ्यास से बाल्यावस्था होते हुए भी इसका समकित आदि दृढ़ है। पूर्वभव के अभ्यास से ही संस्कार दृढ़ रहते हैं।'