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श्राद्धविधि प्रकरणम्
367 पंचमद्वार-जिनमंदिर निर्माण :
ऊंचा तोरण, शिखर, मंडप आदि से सुशोभित जैसा भरत चक्रवर्ती आदि ने बनवाया था, वैसा रत्नरचित, सुवर्णरौप्यमय अथवा श्रेष्ठपाषाणादिमय विशाल जिनप्रासाद बनवाना। इतनी शक्ति न हो तो श्रेष्ठ काष्ट, ईंटों आदि से जिनमंदिर बनवाना। यह करने की भी शक्ति न हो तो जिनप्रतिमा के लिए न्यायोपार्जित धन से घास की झोपड़ी तो भी बनवाना। कहा है कि न्यायोपार्जित धन का स्वामी, बुद्धिमान, शुभपरिणामी और सदाचारी श्रावक गुरु की आज्ञा से जिनमंदिर बनवाने का अधिकारी होता है। प्रत्येक जीव को प्रायः अनादि भव में अनन्त जिनमंदिर और अनन्त जिनप्रतिमाएं बनवायीं; परन्तु उस कृत्य में शुभपरिणाम न होने के कारण उनको समकित का लवलेश भी लाभ नहीं मिला। जिसने जिनमंदिर तथा जिनप्रतिमाएं नहीं बनवायीं, साधुओं को नहीं पूजे और दुर्धरव्रत को अंगीकार भी नहीं किया, उन्होंने अपना मनुष्यभव वृथा गुमाया। यदि पुरुष जिनप्रतिमा के लिए घास की एक झोंपड़ी भी बनाता है, तथा परमगुरु को भक्ति से एक फूल भी अर्पण कस्ता है, तो उसके पुण्य की गिनती ही नहीं हो सकती। और जो पुण्यशाली पुरुष शुभपरिणाम से विशाल, मजबूत और नक्कर पत्थर का जिनमंदिर बनवाता है, उसकी तो बात ही क्या है? वे अतिधन्य पुरुष तो परलोक में विमानवासी देवता होते हैं। जिनमंदिर बनवाने की विधि तो पवित्र भूमि तथा पवित्र दल (पत्थर काष्ठ आदि) मजदूर आदि को न ठगना, मुख्य कारीगर का संमान करना इत्यादि पूर्वोक्त घर की विधि के अनुसार सर्व उचित विधि ही विशेष कर यहां जानना। कहा है कि-धर्म करने के लिए उद्यत पुरुष को किसीको भी अप्रीति हो ऐसा न करना चाहिए। इसी प्रकार से संयम ग्रहण करना हितकारी है। इस विषय में महावीर स्वामी का दृष्टांत है कि उन्होंने मेरे रहने से इन तपस्वियों को अप्रीति होती है, और अप्रीति अबोधिका बीज है' ऐसा सोचकर चौमासे के समय में भी तपस्वियों का आश्रम छोड़कर के विहार किया।
जिनमंदिर बनवाने के लिए काष्ठादि दल भी शुद्ध चाहिए। किसी अधिष्ठायक देवता को रुष्टकर अविधि से लाया हुआ अथवा आरंभ समारंभ लगे इस रीति से अपने लिए बनाया हुआ भी न हो, वही काम में आता है। कंगाल मजदूर लोग अधिक मजदूरी देने से बहुत संतोष पाते हैं, और संतुष्ट होकर अधिक काम करते हैं। जिनमंदिर अथवा जिनप्रतिमा बनवायें तब भावशुद्धि के लिए गुरु तथा संघ के समक्ष यह कहना कि, 'इस काम में अविधिसे जो कुछ परधन आया हो, उसका पुण्य उस मनुष्य का हो। षोडशक में कहा है कि जिस-जिस की मालिकी का द्रव्य अविधि से इस काम में आया हो उसका पुण्य उस धनी को हो। इस प्रकार शुभपरिणाम से कहे तो वह धर्मकृत्य भावशुद्ध हो जाता है। नींव खोदना, भरना, काष्ठ के खंड करना, पत्थर घड़वाना, जुड़वाना, इत्यादि महारंभ समारंभ जिनमंदिर बनवाने में करना पड़ता है, ऐसी शंका न करना, कारण कि, करानेवाले की यतनापूर्वक प्रवृत्ति होने से उसमें दोष