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________________ 366 श्राद्धविधि प्रकरणम् कहलाता है। ६ कुछ भी लेन-देन निश्चित करके कन्यादान करे, वह असुरविवाह कहलाता है। ७ बलात्कार से कन्याहरण करके उससे विवाह करे, वह राक्षसविवाह कहलाता है। ८ सोई हुई अथवा प्रमाद में रही हुई कन्या का ग्रहण करना, वह पैशाचविवाह कहलाता है। ये पीछे के चारों विवाह धर्मानुकूल नहीं हैं। जो कन्या तथा वर की परस्पर प्रीति हो तो अंतिम चारों विवाह भी धर्मानुकूल ही माने जाते हैं। पवित्र स्त्री का लाभ यही विवाह का फल है। पवित्र स्त्री प्राप्त होने पर जो पुरुष उसकी यथायोग्य रक्षा करे तो, संतति भी उत्तम होती है, मन में नित्य समाधान रहता है, गृहकृत्य सुव्यवस्था से चलता है,कुलीनताज्वलित हो जाती है, आचार विचार पवित्र रहते हैं, देव, अतिथि तथा बांधवजन का सत्कार होता है, और पाप का सम्बन्ध नहीं होता। स्त्री की रक्षा करने के उपाय इस प्रकार हैं-उसे गृहकार्य में लगानी, उसके हाथ में खर्च के लिए परिमित व उचित रकम देनी, उसे स्वतन्त्रता न देनी, उसे हमेशां मातादि के समान स्त्रियों के सहवास में रखना इत्यादि स्त्री के सम्बन्ध में जो उचित आचरण पूर्व में कहे जा चुके हैं, उसमें इस बात का विचार प्रकट किया है। विवाह आदि में जो खर्च तथा उत्सव आदि करना, वह अपने कुल, धन, लोक इत्यादिक की योग्यता पर ध्यान देकर ही करना; अधिक न करना, कारण कि, अधिक व्यय आदि करना धर्मकृत्य में ही उचित है। विवाह आदि में जितना खर्च हुआ हो, उसीके अनुसार स्नात्र, महापूजा, महानैवेद्य, चतुर्विध संघ का सत्कार आदि धर्मकृत्य भी आदरपूर्वक करने चाहिए। संसार की वृद्धि करनेवाला विवाह आदि भी इस प्रकार पुण्य कार्य करने । सेसफल हो जाता है। चतुर्थ द्वार मित्र जो है, वह संपूर्ण कार्यों में विश्वासपात्र होने से समयपर मदद आदि करता है। गाथा में आदि' शब्द है जिससे वणिक्पुत्र (मुनीम), सहायक, नौकर आदि भी धर्म, अर्थ और काम के कारण होने से उचित रीति से ही करने चाहिए। उनमें उत्तमप्रकृति, साधर्मिकता, धैर्य, गंभीरता, चातुर्य, सुबुद्धि आदि गुण अवश्य होने चाहिए। इस विषय के दृष्टान्त पहिले व्यवहार शुद्धि प्रकरण में कहे जा चुके हैं। मूलगाथा - १५ चेइअ पडिम' पइट्टा", सुआइपव्वावणा य पयठवणा'। पुत्थयलेहणवायण" पोसहसालाइकारवणं" ।।१५।। संक्षिप्तार्थः५ जिनमंदिर बनवाना, ६ उसमें प्रतिमा स्थापन करना, ७ जिनबिंब की प्रतिष्ठा करना, ८ पुत्र आदि का दीक्षाउत्सव करना, ९ आचार्यादि पद की स्थापना करना, १० पुस्तकें लिखवाना, पढ़वाना और ११ पौषधशाला आदि बनवाना ॥१५॥
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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