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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 359 अन्त प्रान्त गामड़े (ग्राम) इत्यादि में धनप्राप्ति आदि से सुखपूर्वक निर्वाह होता हो तो भी न रहना चाहिए। कहा है कि जहां जिन, जिनमंदिर और संघ का मुखकमल ये तीन वस्तुएँ दृष्टि में नहीं आती, वैसे ही जिनवचन सुनने में नहीं आता; वहां अपार संपदा हो तो भी वह किस कामकी? जो तुझे मूर्खता की आवश्यकता हो तो तूगामड़े में तीन दिन रह। कारण कि, वहां नया अध्ययन नहीं होता, और पूर्व में पदा हुआ हो वह भी विस्मरण हो जाता है। ऐसा सुनते हैं कि किसी नगर का निवासी एक वणिक् थोड़े से वणिकों की बसतीवाले एक देहात में जाकर द्रव्यलाभ के निमित्त रहने लगा। खेती तथा अन्य बहुत से व्यापार कर उसने धन उपार्जन किया। इतने में उसके रहनेका घासका झोंपड़ाजल गया। इसी प्रकार बार-बार धन उपार्जन करने पर भी किसी समय डाका, तो किसी समय दुष्काल, राजदंड आदि से उसका धन चला गया। एक समय उस गांव के रहनेवाले चोरों ने किसी नगर में डाका डाला, जिससे राजा ने क्रोधित हो वह गांव जला दिया, और सुभटों ने श्रेष्ठी के पुत्रादिकों को पकड़ा। तब श्रेष्ठी सुभटों के साथ लड़ता हुआ मारा गया। कुग्रामवास का ऐसा फल होता है। रहने का स्थान उचित हो, तो भी वहां स्वचक्र, परचक्र, विरोध, दुष्काल, महामारी, अतिवृष्टि आदि, प्रजा के साथ कलह,नगरका नाश इत्यादि उपद्रव से अस्वस्थता उत्पन्न हुई हो तो, वह स्थान शीघ्र छोड़ देना चाहिए। ऐसा न करने से प्रायः धर्मार्थकाम की हानि हो जाती है। जैसे यवन[मुस्लीम] लोगों ने देहली(दिल्ली) शहर नष्ट कर दिया, उस समय भय से जिन्हों ने देहली(दिल्ली) छोड़ दी और गुजरात आदि देशों में निवास किया उन्होंने अपने धर्म, अर्थ, काम की पुष्टि करके यह भव तथा परभव सफल किया; और जिन्होंने देहली (दिल्ली) नहीं छोड़ी, उन लोगों ने बंदीगृह में पड़ना आदि उपद्रव पाकर अपने दोनों भव पानी में गुमाये। नगर का विनाश होने पर स्थान त्यागने के विषय में क्षितिप्रतिष्ठितपुर, चणकपुर, ऋषभपुर आदि के उदाहरण विद्यमान हैं। सिद्धांत में कहा है कि क्षितिप्रतिष्ठित, चणकपुर, ऋषभपुर,कुशाग्रपुर, राजगृह, चम्पा, पाटलीपुत्र इत्यादि एक ही राजा की नयी-नयी राजधानी के नाम हैं। घर कहाँ - कैसा? : ___ यहां तक रहने का स्थान याने नगर, ग्राम आदि का विचार किया। घर भी रहने का स्थान कहलाता है। अतएव अब उसका विचार करना चाहिए। अच्छे मनुष्यों को अपना घर वहां बनाना जहां कि अच्छे ही मनुष्यों का पड़ौस हो। बिलकुल एकांत में नहीं बनाना। शास्त्रोक्त विधि के अनुसार परिमितद्वार आदि गुण जिस घर में हो, वह घर धर्म, अर्थ, और काम का साधनेवाला होने से रहने को उचित है। खराब पड़ोसियों को शास्त्र में निषिद्ध किया है। यथा-वेश्या, तिर्यंचयोनि के प्राणी,कोतवाल, बौद्ध आदि के साधु; ब्राह्मण, स्मशान, बाघरी, शिकारी, कारागृह का अधिकारी (जेलर), डाकू, भील्ल,कहार (मच्छीमार),जुगारी, चोर, नट, नर्तक, भट्ट, भांड और कुकर्म करनेवाले -
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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