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________________ 348 श्राद्धविधि प्रकरणम् श्रेष्ठी ने श्रीगिरनारजी पर स्नात्रमहोत्सव के समय छप्पन धड़ी प्रमाण सुवर्ण देकर • इन्द्रमाला पहनी थी, और उसने श्री शत्रुजय पर तथा श्री गिरनारजी पर एक ही सुवर्णमय ध्वजा चढायी। उसके पुत्र झांझण श्रेष्ठी ने तो रेशमी वस्त्रमय ध्वजा चढायी थी इत्यादि। इसी प्रकार देवद्रव्य की वृद्धि के निमित्त प्रतिवर्ष मालोदघाटन करना। उसमें इन्द्रमाला अथवा दूसरी माला प्रतिवर्ष शक्ति के अनुसार ग्रहण करना। श्रीकुमारपाल के संघ में मालोद्घाटन हुआ, तब वाग्भटमंत्री आदि समर्थ लोग चार लाख, आठ लाख आदि संख्या बोलने लगे, उस समय सौराष्ट्र देशान्तर्गत महुआ-निवासी प्राग्वाट हंसराज धारु का पुत्र जगडुशा, मलीनशरीर में मलीन वस्त्र पहनकर-ओढे हुए वहां खड़ा था, उसने एकदम से सवा करोड़ की रकम कही। राजा कुमारपाल ने आश्चर्य से पूछा तो उसने उत्तर दिया कि, 'मेरे पिता ने नौकारूढ होकर, देशदेशान्तर में व्यापार करके, उपार्जन किये हुए द्रव्य से सवा २ करोड स्वर्णमुद्रा की कीमत के पांच माणिक्य रत्न खरीदे, और अन्त समय पर मुझे कहा कि, 'श्री शजय, गिरनार और कुमारपालपट्टन में निवास करनेवाले भगवान् को एक-एक रत्न अर्पण करना, और दो रत्न तू अपने लिए रखना।' पश्चात् उसने वे तीनों रत्न स्वर्णजडित करके शत्रुजय निवासी ऋषभ भगवान् को, गिरनार निवासी श्री नेमिनाथजी को तथा पट्टनवासी श्री चंद्रप्रभजी को कंठाभरणरूप में अर्पण किये। ___एक समय श्री गिरनारजी पर दिगंबर तथा श्वेताम्बर इन दोनों के संघ एक ही साथ आ पहुंचे और 'हमारा तीर्थ' कहकर परस्पर झगड़ा करने लगे। तब 'जो इन्द्रमाला पहने उसका यह तीर्थ है' ऐसे वृद्धों के वचन से पेथड श्रेष्ठी ने छप्पन धड़ी प्रमाण सुवर्ण देकर इन्द्रमाला पहनी, और याचकों को चार धड़ी सुवर्ण देकर यह सिद्ध किया कि तीर्थ हमारा है। इसी प्रकार से पहिरावणी, नई धोतियां, अनेक प्रकार के चन्दुएँ, अंगलूहणे, दीपक के लिए तैल, चंदन, केशर, भोग आदि जिनमंदिरोपयोगी वस्तुएँ प्रतिवर्षशक्त्यानुसार देना। वैसे ही उत्तमअंगी, बेलबूटों की रचना,सर्वांग के आभूषण, फूलघर, केलिघर पुतली के हाथ में के फव्वारे इत्यादि रचना तथा अनेक प्रकार के गायन, नृत्य आदि उत्सव से महापूजा तथा रात्रिजागरण करना,जैसे कि एक श्रेष्ठी ने समुद्र में मुसाफिरी करने को जाते समय एक लाख द्रव्य खर्च करके महापूजा की, और मनवांछित लाभ होने से बारह वर्ष बाद वापस आया तब हर्ष से एक करोड़ रुपय खर्चकर जिनमंदिर में महापूजा आदि उत्सव किया। ___इसी तरह पुस्तकादि स्थित श्रुतज्ञान की कपूर आदि वस्तु से सामान्य पूजा तो चाहे जब की जा सकती है। मूल्यवान वस्त्र आदि से विशेष पूजा तो प्रतिमास शुक्लापंचमी के दिन श्रावक को करनी चाहिए। यह करने की शक्ति न हो तो जघन्य से वर्ष में एक बार तो करनी ही चाहिए। यह बात जन्मकृत्य में आये हुए ज्ञानभक्तिद्वार में विस्तार से कही जायेगी।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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