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श्राद्धविधि प्रकरणम्
347 धोतीयां, चंदन, केशर, भोग की वस्तु, पुष्प लाने की छबड़ी, पिंगानिका (चंगेरी) कलश, धूपदान, आरती, आभूषण, दीपक, चामर, नालयुक्त कलश, थालियां, कटोरियां, घंटे, झालर, नगारा आदि देना। पूजारी रखना, सूतार आदिका सत्कार करना। तीर्थ की सेवा, बिना शर्त तीर्थ का उद्धार तथा तीर्थ के रक्षक लोगों का सत्कार करना। तीर्थको भाग देना। साधर्मिकवात्सल्य, गुरु की भक्ति तथा संघ की पहिरावणी आदि करना। याचकादिकों को उचित दान देना। जिनमंदिर आदि धर्म कृत्य करना। याचकों को दान देने से कीर्ति मात्र होती है, यह समझकर वह निष्फल है ऐसा न मानना। कारण कि, याचक भी देव के, गुरु के तथा संघ के गुण गाते हैं इसलिए उनको दिया हुआ दान बहुत फलदायी है। चक्रवर्ती आदि लोग जिनेश्वर भगवान के आगमन की वधाई देनेवाले को भी साढ़े बारह करोड़ स्वर्णमुद्राएं आदि दान देते थे। सिद्धान्त में कहा है कि साढ़े बारह लाख तथा साढ़े बारह करोड़ स्वर्णमुद्रा के बराबर चक्रवर्ती का प्रीतिदान है। इस प्रकार यात्रा करके लौटते समय संघवी महोत्सव के साथ अपने घर में प्रवेश करे। पश्चात् देववंदनादि उत्सव करे, और एक वर्ष अथवा अधिक काल तक तीर्थोपवास आदि करे। इत्यादि...
श्रीसिद्धसेनदिवाकर का प्रतिबोधित किया हुआ विक्रमादित्य राजा शजय की यात्रा को गया, तब उसके संघ में एक सौ उनसत्तर (१६९) स्वर्णमय और पांचसौ (५००) हस्ति दांत, चंदनादिमय जिनमंदिर थे। सिद्धसेनदिवाकर आदि पांच हजार (५०००) आचार्य थे। चौदह (१४) मुकुटधारी राजा थे, तथा सत्तरलाख (७००००००) श्रावक कुटुम्ब, एक करोड़ दस लाख नव हजार (११००९०००) गाड़ियां, अट्ठारह लाख (१८०००००) घोड़े, छहत्तरसौ (७६००) हाथी और इसी प्रकार ऊंट, बैल आदि थे। कुमारपाल के निकाले हुए संघ में सुवर्णरत्नादिमय अट्ठारहसौ चौहत्तर (१८७४) जिनमंदिर थे। थराद में पश्चिममंडलिक नाम से प्रसिद्ध आभु संघवी की यात्रा में सातसौ (७००) जिनमंदिर थे। और उसने यात्रा में बारह करोड़ स्वर्णमुद्राओं का व्यय किया। पेथड नामक श्रेष्ठी ने तीर्थ के दर्शन किये तब ग्यारह लाख रौप्यटक व्यय किये, और उसके संघ में बावन जिनमंदिर और सात लाख मनुष्य थे। वस्तुपालमंत्री की साढ़े बारह यात्राएँ प्रसिद्ध हैं इत्यादि।
इसी प्रकार प्रतिदिन जिनमंदिर में धूमधाम से स्नात्रोत्सव करना, ऐसा करने की शक्ति न हो तो प्रत्येक पर्व के दिन करना, यह भी न हो सके तो वर्ष में एक बार तो स्नात्रोत्सव अवश्य करना चाहिए। उसमें मेरु की रचना करना, अष्टमंगलिक की स्थापना करना, नैवेद्य धरना तथा बहुतसी केशर, चन्दन, सुगंधित पुष्प और भोग आदि सकल वस्तुओं को एकत्रित करना, संगीत आदि सामग्री अच्छी तरह तैयार करना। रेशमी वस्त्रमय महाध्वजा देना, और प्रभावना आदि करना। स्नात्रोत्सव में अपनी संपत्ति, कुल, प्रतिष्ठा आदि के अनुसार पूर्णशक्ति से व्यय आदि कर आडंबर पूर्वक, जिनमत की विशेष प्रभावना करने का प्रयत्न करना। सुनते हैं कि—पेथड