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________________ - श्राद्धविधि प्रकरणम् 343 जिससे राजा को आठ उपवास हुए। परन्तु उसकी साधर्मिक भक्ति तो तरुणपुरुष की शक्ति की तरह दिन प्रतिदिन बढ़ती ही गयी; जिससे इन्द्र प्रसन्न हुआ, और उसने उसको दिव्य धनुष्य, बाण, रथ, हार तथा दो कुंडल देकर शत्रुजय की यात्रा करने के लिए प्रेरणा की। दंडवीर्य ने वैसा ही किया। श्री संभवनाथ का पूर्वभव : श्री संभवनाथ भगवान् भी पूर्व के तीसरे भव में धातकीखंडान्तर्गत ऐरवतक्षेत्र की क्षेमापुरीनगरी में विमलवाहन नामक राजा थे। तब उन्होंने भयंकर दुर्भिक्ष में समस्त साधर्मिकभाइयों को भोजनादिक देकर जिननाम कर्म उपार्जन किया। पश्चात् दीक्षा ले देहान्त होने पर आनतदेवलोक में देवतापन भोगकर श्रीसंभवनाथ तीर्थकर हुए। उनका फाल्गुन शुक्ल अष्टमी के दिन अवतार हुआ, उस समय महान् दुर्भिक्ष होते हुए उसी दिन चारो तरफ से सर्व जाति का धान्य आ पहुंचा, इससे उनका नाम 'सम्भव' पड़ा। बृहद्भाष्य में कहा है कि-'शं' शब्द का अर्थ सुख है। भगवान् के दर्शन से सर्व भव्य जीवों को सुख होता है, इसलिए उनको 'शंभव' कहते हैं। इस व्याख्यान के अनुसार सर्व तीर्थंकर शंभव नाम से बोले जाते हैं। संभवनाथजी को संभवनाम से पहिचानने का और भी एक कारण है। किसी समय श्रावस्ती नगरी में कालदोष से दुर्भिक्ष पड़ गया, तब सर्व मनुष्य दुःखी हो गये। इतने ही में सेनादेवी के गर्भ में संभवनाथजी ने अवतार लिया। तब इन्द्र ने स्वयं आकर सेनादेवी माता की पूजा की, और जगत् में सूर्य के समान पुत्र की प्राप्ति होने की उसे बधाई दी। उसी दिन धान्य से परिपूर्ण भरे हुए बहुत से सार्थ (टांडे) चारों तरफ से आये और उससे वहां सुभिक्ष हो गया। उन भगवान् के सम्भव (जन्म) में सर्व धान्य का सम्भव हुआ, इसी कारण से माता-पिता ने उनका नाम 'सम्भव' रखा। जगसिंह : देवगिरि में जगसिंह नामक श्रेष्ठि अपने ही समान सुखी किये हुए तीनसौ साठ मुनीमों के द्वारा नित्य बहत्तर हजार टंक व्यय करके एक-एक साधर्मिकवात्सल्य कराता था। इस प्रकार प्रतिवर्ष उसके तीनसौ साठ साधर्मिकवात्सल्य होते थे। आभू संघवी : ___ थराद में श्रीमाल आभू नामक संघपति ने तीनसौ साठ साधर्मिकभाइयों को अपने समान किये। कहा है कि उस सुवर्णपर्वत (मेरु) तथा चांदी के पर्वत (वैताढ्य) का क्या उपयोग? कारण कि, जिसके आश्रित वृक्ष काष्ठ के काष्ठ ही रहते हैं, सुवर्णचांदी के नहीं होते। एक मलय पर्वत को ही हम बहुत मान देते हैं; कारण कि उसके आश्रित आम, नीम और कुटज वृक्ष भी चन्दनमय हो जाते हैं। सारंग सेठ : सारंग नामक श्रेष्ठी ने पंचपरमेष्ठि मंत्र का पाठ करनेवाले लोगों को प्रवाह से प्रत्येक को सुवर्णटंक दिये। एक चारण को 'बोल' ऐसा बार-बार कहने से नौ बार
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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