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श्राद्धविधि प्रकरणम्
पापराशियां उदय होती हैं, तब स्त्री-भव प्राप्त होता है, यह तू सम्यक् प्रकार से जान। इस प्रकार समस्त शास्त्रों में पद-पद पर स्त्रियों की निन्दा देखने में आती है। इसलिए उनको दूर रखना ऐसा होते हुए उनका दान संमानरूपी वात्सल्य करना किस प्रकार योग्य है?
समाधान: 'स्त्रियां ही दुष्ट होती हैं ऐसा एकांत पक्ष नहीं । जैसे स्त्रियों में वैसे पुरुषों मे भी दुष्टता समान ही है। कारण कि, पुरुष भी क्रूरप्रकृति, महादुष्ट, नास्तिक, कृतघ्न, अपने स्वामी के साथ वैर करनेवाला, विश्वासघाती, असत्यभाषी, परधन तथा परस्त्री हरण करनेवाला, निर्दय तथा गुरु को भी ठगनेवाला ऐसे बहुत से देखने में आते हैं। पुरुष जाति में कोई-कोई ऐसे मनुष्य हैं, उससे जैसे सत्पुरुषों की अवज्ञा करना घटित नहीं होता, वैसे ही स्त्रीजाति में कुछ दुष्ट स्त्रियां हैं, उससे समस्त स्त्रियों की अवज्ञा करना यह भी घटित नहीं होता। जैसे महादुष्ट वैसे ही महागुणवान स्त्रियां भी हैं। जैसे तीर्थंकरों की माताएं श्रेष्ठगुणों से युक्त होती हैं, इससे देवताओं के इन्द्र भी उनकी पूजा करते हैं और मुनि भी स्तुति करते हैं। लौकिकशास्त्र भी कहते हैं कि, स्त्रियां कोई ऐसा अद्भुत गर्भ धारण करती हैं कि, जो तीनों जगत् का गुरु होता है। इसीलिए पंडित लोग स्त्रियों का बड़प्पन स्वीकार करते हैं। बहुतसी स्त्रियां अपने शील के प्रभाव से अग्नि को जल समान, जल को स्थल समान, गज को श्रृंगाल समान, सर्प को रस्सी समान और विष को अमृत समान कर देती हैं, वैसे ही चतुर्विध श्रीसंघ का चौथा अंग श्राविकाएं हैं। शास्त्र में जो उनकी विशेष निन्दा सुनने में आती है, वह पुरुषों को उनमें आसक्ति न करना इस उपदेश के लिए है। सुलसा आदि श्राविकाओं के गुणों की तो तीर्थंकरों ने भी बहुत प्रशंसा की है। उनकी धर्मदृढ़ता की प्रशंसा इन्द्रों ने भी स्वर्ग में की है; और प्रबल मिथ्यात्वी भी इनको समकित से न डिगा सके। इसी प्रकार कितनी ही श्राविकाएं तद्भवमोक्षगामिनी तथा कितनी ही दो, तीन आदि भव करके मोक्षगामिनी शास्त्र में सुनी जाती हैं। इसलिए माता की तरह, बहन की तरह, तथा पुत्री की तरह इनका वात्सल्य करना घटित ही है।
साधर्मिक वात्सल्य कर के ही राजालोग अपना अतिथिसंविभागव्रत पालते हैं। कारण कि, मुनियों को राजपिंड खपता नहीं। इस विषय पर भरत के वंश में हुए त्रिखंडाधिपति दंडवीर्य राजा का दृष्टान्त कहते हैं कि
दण्डवीर्य :
दंडवीर्य राजा नित्य साधर्मिकभाई को जिमाकर ही स्वयं भोजन करता था। एक समय इन्द्र ने उसकी परीक्षा करने का विचार किया। उसने ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूपी तीन रत्नों का सूचक सुवर्णसूत्र (जनेऊ) और बारहव्रतों के सूचक बारह तिलक धारण करनेवाले तथा भरत रचित चार वेदों का मुख पाठ करनेवाले, तीर्थयात्रा प्रवासी करोडों श्रावकों को प्रकट किये। दंडवीर्य भक्तिपूर्वक उनको निमंत्रण करके जिमाता है, इतने में सूर्यास्त हो गया। इस प्रकार लगातार आठ दिन तक श्रावक प्रकट किये।