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________________ 336 श्राद्धविधि प्रकरणम् नहाना, पीना, अग्नि सुलगाना, दीपक करना, पवन करना (पंखी से हवा करना), लीलोतरी छेदना, वयो-वृद्ध पुरुषों के साथ अधिक बोलना (विवाद करना), अदत्तादान तथा स्त्री को पुरुष के साथ तथा पुरुष को स्त्री के साथ बैठना, सोना, बोलना, देखना आदि का व्यवहार में परिमाण रखना। दिशा का परिमाण रखना, तथा भोगोपभोग का भी परिमाण रखना। इसी प्रकार सर्व अनर्थदंड का संक्षेप करना, सामायिक, पौषध तथा अतिथिसंविभाग में भी जो छूट रखी हो उसमें प्रतिदिन संक्षेप करना। खांडना, दलना, रांधना, पूँजना (चणे आदि का शेकना), खोदना, वस्त्रादि रंगना, कांतना, पीजना, लोढ़ना, घर आदि पुताना, लीपना, झटकना, वाहन पर चढ़ना, लीख आदि देखना, जूते पहनना, खेत नींदना, काटना, चुनना, रांधना, दलना इत्यादि कार्यों में प्रतिदिन यथाशक्ति संवर रखना। पढ़ना, जिनमंदिर में दर्शन करना, व्याख्यान सुनना, गुणना, इतने सब कार्यों में तथा जिनमंदिर के सर्वकार्यों में विशेष उद्यम करना। तथा वर्ष के अन्दर धर्म के हेतु अष्टमी, चतुर्दशी, विशेषतपस्या और कल्याणक तिथि में उजमणे का महोत्सव करना। धर्म के हेतु मुंहपत्ति,पानीकेछनने (गलने) तथा औषध आदि देना। यथाशक्ति साधर्मिकवात्सल्य करना,और गुरुविनय करना। प्रतिमास सामायिक व प्रतिवर्ष पौषध तथा अतिथिसंविभाग यथाशक्ति करना। अब इस विषय पर दृष्टान्त कहते हैं किनियम पालन का फल : विजयपुर नगर में विजयसेन नामक राजा था। उसके बहुत से पुत्र थे। उनमें से विजयश्रीरानी का पुत्र राज्य के योग्य हुआ, यह जानकर राजा ने उसका संमानादि करना छोड़ दिया। ऐसा करने में राजा का यह अभिप्राय था कि, 'दूसरे पुत्र ईर्ष्यावश इसका वध न कर डालें।' पर इससे राजकुमार को बहुत दुःख हुआ, वह मन में सोचने लगा कि, 'पग से कुचली हुई धूल भी कुचलनेवाले के मस्तक पर चढ़ती है। अतएव गूंगेमुंह से अपमान सहन करनेवाले मनुष्य से तो धूल श्रेष्ठ है। ऐसा नीतिशास्त्र का वचन है, इसलिए मुझे यहां रहकर क्या करना है? मैं अब परदेश जाऊंगा। कहा है कि, 'जो मनुष्य घर में से बाहर निकलकर सैकडों आश्चर्य से भरे हुए सम्पूर्ण पृथ्वीमंडल को देखता नहीं, वह कूपमंडूक के समान है। पृथ्वीमंडल में भ्रमण करनेवाले पुरुष देश-देश की भाषाएं जानते हैं, देश-देश के विचित्र रीति रिवाज जानते हैं और अनेक प्रकार के आश्चर्यकारी चमत्कार देखते हैं।' यह विचारकर राजकुमार चुपचाप रात्रि के समय हाथ में खड्ग ले बाहर निकला, और स्वच्छन्दता पूर्वक पृथ्वी में भ्रमण करने लगा। एक समय वन में फिरता हुआ मध्याह्न के समय क्षुधातृषा से बहुत दुःखित हो गया। इतने में ही सर्वांग में दिव्य आभूषण पहने हुए एक दिव्य पुरुष आया। उसने स्नेहपूर्वक बातचीत करके कुमार को एक सबप्रकार के उपद्रव का नाश करनेवाला और दूसरा इष्ट वस्तु को देनेवाला ऐसे दो रत्न दिये।कुमार ने उसको पूछा कि, 'तू कौन है?' उसने उत्तर दिया-जब तू अपने नगर में जायेगा तब मुनिराज के वचन से मेरा
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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