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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 329 परन्तु शुद्ध अन्तःकरणवाले सत्पुरुषों का अंगीकार किया हुआ व्रत प्रलय (मरण) हो तो भी विचलित नहीं होता। तदनंतर देवता ने प्रसन्न होकर धनेश्वर श्रेष्ठी को कहा'मैं सन्तुष्ट हुआ हूं। इच्छित वर मांग।' तो भी श्रेष्ठी ने धर्मध्यान नहीं छोड़ा। तथा अतिशय प्रसन्न होकर देवता ने श्रेष्ठी के घर में करोडों स्वर्णमुद्रा तथा रत्नों की वृष्टि की। यह महिमा देखकर बहुत से लोगों ने पर्वतिथियों में धर्माराधना यथाशक्ति प्रारंभ की। उनमें भी राजा का धोबी, तेली और एक कौटुम्बिक (कृषक नौकर) ये तीनों व्यक्ति, जिनको राजा की प्रसन्नता के हेतु इन्हें विशेष ध्यान रखना पड़ता था। तो भी छःओं पर्यों में वे अपना-अपना धंधा बन्द रखते थे। धनेश्वर श्रेष्ठी भी नये साधर्मिक जन उनको पारणे के दिन साथ में भोजन कराकर, पहिरावणी देकर, तथा इच्छित धन देकर उनका बहुत आदर सत्कार किया करता था। कहा है कि, 'जैसे मेरुपर्वत में लगा हुआ तृण भी सुवर्ण हो जाता है वैसे ही सत्पुरुषों का समागम कुशील को भी सुशील कर देता है।' एक दिन कौमुदीमहोत्सव होनेवाला था, जिससे राज्यपुरुषों ने चतुर्दशी के दिन राजा व रानी के वस्त्र उसी दिन धोकर लाने के लिए उक्त श्रावक धोबी को दिये। धोबी ने कहा 'मुझे तथा मेरे कुटुम्ब को (बाधा) नियम होने से हम पर्व के दिन वस्त्र धोना आदि आरम्भ नहीं करते।' राजपुरुषों ने कहा कि-'राजा के आगे तेरी बाधा (नियम) क्या चीज है? राजा की आज्ञा भंग होगी तो प्राणदंड दिया जायेगा।' पश्चात् धोबी के स्वजनों ने तथा अन्य लोगों ने भी उसे बहुत समझाया। धनेश्वरश्रेष्ठी ने भी 'राजदंड होने से धर्म की हीलना आदि न हो' यह सोच 'रायाभिओगेणं' ऐसा आगार है, इत्यादि युक्ति बतायी, तो भी धोबी ने 'दृढ़ता के बिना धर्म किस कामका?' यह कहकर अपने नियम की दृढ़ता नहीं छोड़ी,और ऐसे संकटसमय में भी किसीका कहना न माना। अपने मनुष्यों के कहने से राजा भी रुष्ट हुआ और कहने लगा कि, 'मेरी आज्ञा का भंग करेगा तो प्रातःकाल इसको तथा इसके कुटुम्ब को शिक्षा करूंगा।' इतने में कर्मयोग से उसी रात्रि को राजा के पेट में ऐसा शूल हुआ कि, जिससे सारे नगर में हाहाकार मच गया। इस तरह तीन दिन व्यतीत हो गये। धोबी ने यथाविधि अपने नियम का पालन किया। पश्चात् प्रतिपदा (पडवा) के दिन राजा तथा रानी के वस्त्र धोये। और बीज के दिन राजपुरुषों के मांगते ही तुरंत दे दिये। इसी प्रकार किसी आवश्यकीय कारण से बहुत से तैल की आवश्यकता होने से राजा ने श्रावक तेली को चतुर्दशी के दिन घाणी चलाने का हुक्म दिया। तेली ने अपने नियम की दृढ़ता बतायी, जिससे राजा रुष्ट हो गया। इतने में ही परचक्र आया। राजा को सेना लेकर शत्रु के संमुख जा संग्राम में उतरना पड़ा। और राजा कीजय हुई। परन्तु राजा के इस कार्य में व्यग्र हो जाने से तेल की आवश्यकता न हुई, और तेली का नियम पूर्ण हुआ। एक समय राजा ने अष्टमी के शुभमुहूर्त में उस श्रावक कौटुंबिक (कुनबी-कृषक) को हल चलाने की आज्ञा दी। तब उसने अपना नियम कह सुनाया, जिससे राजा क्रुद्ध हो गया। परन्तु इतने में ही एक १. यह कथन अजैनों के ग्रंथों का है।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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