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________________ 328 श्राद्धविधि प्रकरणम् छठमत्थो मूढमणो, कित्तिअमित्तं च संभरइ जीवो। जंच न सुमरामि अहं, मिच्छा मि दुक्कडं तस्स ।।२।। सामाइयपोसहसंठिअस्स जीवस्स जाइ जो कालो। सो सफलो बोद्धव्वो, सेसो संसारफलहेऊ ।।३।। पश्चात् सामायिक विधि से लिया इत्यादि कहना। दिवस पौषध भी इसी रीति से जानना। विशेष इतना ही है कि, पौषधदंडक में 'जाव दिवसं पज्जुवासामि' ऐसा कहना। देवसीप्रतिक्रमण कर लेने पर दिवसपौषध पाला जा सकता है। रात्रिपौषध भी इसी प्रकार है। उसमें इतना ही विशेष है कि, पौषधदंडक में 'जाव सेसदिवसं रत्तिं पज्जुवासामि' ऐसा कहना। मध्याह्न के बाद दो घड़ी दिन रहे वहां तक रात्रिपौषध लिया जाता है। पौषध के पारणे के दिन साधु का योग हो तो अवश्य अतिथिसंविभाग व्रत करके पारणा करना। - इस प्रकार पौषध आदि करके पर्व दिन की आराधना करना चाहिए। इस विषय पर दृष्टान्त है किधनसार की कथा : धन्यपुर में धनेश्वर नामक श्रेष्ठी, धनश्री नामक उसकी स्त्री और धनसार नामक उसका पुत्र, ऐसा एक कुटुम्ब रहता था। धनेश्वर श्रेष्ठी परम श्रावक था। वह कुटुम्ब सहित प्रत्येकपक्ष में विशेष आरम्भ का त्याग आदि नियम का पालन किया करता था, और 'चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या तथा पूर्णिमा इन तिथियों में परिपूर्ण पौषध करनेवाला था',जिस प्रकार भगवतीसूत्र में तंगिकानगरी के श्रावक के वर्णन के प्रसंग में कहा है तदनुसार प्रतिमास छः पर्व तिथियों में वह यथाविधि पौषध आदि करता था। एक समय वह अष्टमी का पौषध किये हए होने से रात्रि को शन्यघर में प्रतिमा अंगीकार करके रहा। तब सौधर्मेन्द्र ने उसकी धर्म दृढ़ता की बहुत प्रशंसा की। जिसे सुन एक मिथ्यादृष्टि देवता उसकी परीक्षा करने आया। प्रथम उसने श्रेष्ठी के मित्र का रूप प्रकटकर 'करोड़ स्वर्णमुद्राओं का निधि है। तुम आज्ञा करो तो वह मैं ले लेऊ' इस प्रकार अनेक बार श्रेष्ठी को विनती की। पश्चात् उस देवता ने, श्रेष्ठी की स्त्री का रूप प्रकट किया, और आलिंगन आदि करके उसकी बहुत कदर्थना की। तत्पश्चात् मध्यरात्रि होते हुए प्रभात काल का प्रकाश, सूर्योदय तथा सूर्यकिरण आदि प्रकटकर उस देवता ने श्रेष्ठी के स्त्री, पुत्र आदि का रूप बनाकर पौषध का पारणा करने के लिए श्रेष्ठी को अनेक बार प्रार्थना की। इसी तरह बहुत से अनुकूल उपसर्ग किये, तो भी स्वाध्याय करने के अनुसार मध्यरात्रि है, यह श्रेष्ठी जानता था, जिससे तिलमात्र भी भ्रम में नहीं पड़ा। यह देख देवता ने पिशाच का रूप बनाया। और चमड़ी उखाड़ना, मारना, उछालना, शिला पर पछाड़ना, समुद्र में फेंक देना इत्यादि प्राणांतिक प्रतिकूल उपसर्ग किये; तो भी श्रेष्ठी धर्मध्यान से विचलित नहीं हुआ। कहा है कि इस पृथ्वी को यद्यपि दिग्गज, कच्छप, कुलपर्वत और शेषनाग ने पकड़ रखी है; तथापि यह चलती है,
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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