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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 325 वन्दना करके पौषधमुंहपत्ति का पडिलेहण करे। पुनः एक खमासमण देकर खड़ा रहकरके कहे कि-'इच्छाकारेण संदिसह भगवन्! पोसह संदिसाहू? गुरु-संदिसावेह. शिष्य-इच्छं। पुनः एक बार खमासमण देकर कहे कि इच्छा०सं.भ० 'पोसह ठाउं? गुरु-ठाएह. शिष्य-इच्छं' ऐसा कह नवकार की गणनाकर इच्छ०भ० पसायकरी पौषध उच्चरावोजी ऐसा कहे फिर साधु, वडिल या स्वयं पौषध का उच्चारण करे यथा करेमि भंते! पोसहं आहारपोसहं सव्वओ देसओ, सरीरसक्कारपोसहंसव्वओ, बंभचेरपोसहं सव्वओ, अव्वावारपोसहं सव्वओ, चउव्विहं पोसहं ठामि, जाव अहोरत्तं पज्जुवासामि, दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। पश्चात् मुंहपत्ति पडिलेहणकरदो खमासमण देकर पूर्ववत् सामायिककी मुँहपत्ति आदि के आदेश लेकर सामायिक करे।' पुनः दो खमासमण देकर जो चौमासा हो तो काष्ठासन का और शेष आठ मास हो तो आसन का 'बेसणे संदिसाहू? और ठाउं?' यह कह आदेश मांगना। तत्पश्चात् दोखमासमण देकर सज्झाय करे। पश्चात् प्रतिक्रमणकर दोखमासमण दे। 'बहुवेलंसंदिसाहू' यह कहे। तत्पश्चात् एक खमासमणदे'पडिलेहणं करेमि' यह कहे। तथा मुंहपत्ति, आसन और पहनने के वस्त्रों का पडिलेहन कर ले। श्राविका मुंहपत्ति, आसन, ओढने का वस्त्र कांचली और घाघरे का पडिलेहण करे। पश्चात् एक खमासमण दे 'इच्छाकारि भगवन्! पडिलेहणा पडिलेहावोजी' ऐसा कहे। तत्पश्चात् 'इच्छं' कहकर स्थापनाचार्य का पडिलेहणकर स्थापनकर एक खमासमण देना। उपधिमुंहपत्ति की पडिलेहणाकर 'उपधि संदिसाहू और पडिलेहू' ऐसा कहे। पश्चात् वस्त्र, कम्बल आदि की पडिलेहणाकर, पौषधशाला का प्रमार्जनकर कूड़ा कचरा उठाकर(देखकर) परठ दे। तत्पश्चात् इरियावही प्रतिक्रमणकर के गमनागमन की आलोचना करे व एक खमासमण देकर मंडली में बैठे और साधु की तरह स्वाध्याय करे। पश्चात् पौणपोरिसी हो, तब तक पढ़े, गुणे अथवा पुस्तक वांचे। पश्चात् एक खमासमण दे मुंहपत्ति पडिलेहणकर कालवेला (शुभ समय) हो वहां तक पूर्व की तरह स्वाध्याय करे। जो देववंदन करना हो तो 'आवस्सई' कहकर जिनमंदिर में जा देववंदन करे। जो आहार करना हो तो पच्चक्खाण पूर्ण होने पर एक खमासमण देकर, मुंहपत्ति पडिलेहणकर, पुनः एक खमासमण देकर कहे कि, 'पारावह पोरिसी पुरिमडो वा चउहार कओ तिहारकओवा आसि,निव्विएणं आयंबिलेणं एगासणेणं पाणाहारेणं वा जा काइ वेला तीए' इस प्रकार कह, देव वन्दनाकर, सज्झायकर, घर जाकर, जो घर सौ हाथ से अधिक दूर हो तो इरियावही प्रतिक्रमणकर, आगमन की आलोचनाकर, सम्भव हो तदनुसार अतिथिसंविभाग व्रत पालन करे। पश्चात् स्थिर आसन से बैठकर, १. सौधर्मबृहत्तपागच्छ में यहाँ इरियावही करना आवश्यक है।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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