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श्राद्धविधि प्रकरणम्
स्थिर न रह सका। हंसी सरल स्वभाव की थी, किन्तु सारसी कपटी प्रकृति की थी। समयानुसार उसने राजा को प्रसन्न करने के हेतु कपट करके माया से बहुत भारी कर्म संचय किया। जीव कपट करके व्यर्थ अपने आपको परलोक में नीच गति में ले जाते हैं, यह उनकी कितनी अज्ञानता है?
हंसी तो सरल प्रकृति की थी। उसने अपने सद्गुणों से कर्म बंधनों को शिथिल कर दिया तथा राजा को भी मान्य हो गयी ।
एक समय राजा जितारि हंसी व सारसी के साथ झरोखे में बैठकर नगर की शोभा देख रहा था। इतने में ही नगर में से जाता हुआ यात्रियों का पवित्र संघ. उसकी दृष्टि में आया। राजा ने अपने एक सेवक से पूछा कि, 'यह क्या है?' सेवक ने वहां जाकर ज्ञात किया व पुनः वापस आकर राजा से निवेदन किया कि, 'हे महाराज ! यह शंखपुर (शंखेश्वर) से आया हुआ संघ विमलाद्रि नामक महातीर्थ (पालीताणा ) को जाता है।'
यह सुन कौतुक वश राजा उस संघ के पड़ाव पर गया, वहां श्रुतसागर नामक आचार्य को देखकर वंदनाकर शुद्ध परिणाम से पूछा कि, 'इस जगत में विमलाद्रि यह तीर्थ कैसा व कहाँ है? यह तीर्थ कैसे हुआ तथा इसका क्या महात्म्य है?"
क्षीराश्रव नामक महालब्धि धारक आचार्य श्री श्रुतसागरसूरि ने राजा के वचन सुनकर कहा
'हे राजन् ! धर्म से ही इष्ट मनोरथ की सिद्धी होती है, कारण कि जगत में धर्म एक मात्र सारभूत है, धर्मों में भी अर्हत्प्रणीत धर्म श्रेष्ठ है और उसमें भी तत्त्व श्रद्धानरूपी समकित श्रेष्ठ है। कारण कि समकित बिना समस्त अज्ञानकष्ट रूप क्रियाएं बांझ वृक्ष की तरह निष्फल हैं। तत्त्वश्रद्धानरूप समकित में वीतराग देव, शुद्ध प्ररूपक गुरु और केवलिभाषित धर्म ये तीन तत्त्व आते हैं। इन तीनों तत्त्वों में वीतराग देव मुख्य हैं। सर्व वीतरागों में प्रथम युगादीश श्री ऋषभदेव भगवान् हैं। इन भगवान् के शासन में विमलाद्रि तीर्थ की अद्भुत महिमा प्रकट हुई। सब तीर्थों में यही विमलाद्रि तीर्थ मुख्य श्रेष्ठ है। पृथक्-पृथक् कारणों से इस तीर्थ के बहुत से नाम हैं, यथा- २ सिद्धि क्षेत्र, २ तीर्थराज, ३ मरुदेव, ४ भगीरथ, ५ विमलाचल, ६ बाहुबली, ७ सहस्रकमल, ८ तालध्वज, ९ कदंब, १० शतपत्र, ११ नगाधिराज, १२ अष्टोत्तरशतकूट, १३ सहस्रपत्र, १४ ढंक, १५ लौहित्य, १६ कपर्दिनिवास, १७ सिद्धिशेखर, १८ पुंडरीक, १९ मुक्तिनिलय, २० सिद्धिपर्वत तथा २१ शत्रुंजय | ऐसे इस तीर्थ के इक्कीस नाम देवता, मनुष्य तथा ऋषियों ने कहे हैं। वही वर्त्तमान समय में भव्य प्राणी कहते हैं । उपरोक्त ये नाम इसी अवसर्पिणी में जानो। जिनमें से कितने ही नाम तो पूर्वकाल में हो गये हैं और कितने ही भविष्यकाल में होनेवाले हैं। इनमें प्रत्यक्ष अर्थवाला 'शत्रुंजय' यह नाम आते भव में तू ही निर्माण करेगा, यह हमने ज्ञानियों के मुंह से सुना है। इसके अतिरिक्त श्री सुधर्मास्वामी रचित श्रीशत्रुंजयमहाकल्प में इस तीर्थ के १०८ नाम कहे हैं, यथाः - १