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श्राद्धविधि प्रकरणम् 'अट्ठमिचउद्दसीनाणपंचमीचउमास०' इत्यादि वचन महानिशीथ में हैं। व्यवहारसूत्र के छठे उद्देशे में 'पक्खस्स अट्ठमी खलु, मासस्स य पक्खिअं मुणेअव्वं' इस वचन की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार ने 'पाक्षिक' शब्द का अर्थ चतुर्दशी ही किया है। जो पक्खी और चतुर्दशी भिन्न होते तो आगम में दोनों शब्द पृथक्-पृथक् आते, परन्तु ऐसा नहीं है। इससे हम यह निर्णय करते हैं कि पक्खी चतुर्दशी के दिन ही होती है।"
पूर्वकाल में चौमासी पूनम को तथा संवत्सरी पंचमी को करते थे। परन्तु वर्तमानकाल में श्री कालिकाचार्य की आचरणा से चौमासी चतुर्दशी को और संवत्सरी चौथ को की जाती है; यह बात सर्वसम्मत होने से प्रामाणिक है। श्री कल्पभाष्य आदि ग्रंथों में कहा है कि किसी भी आचार्य ने किसी भी समय मन में शठता न रखते जो कुछ निरवद्य आचरण किया हो और अन्य आचार्यों ने उसका जो प्रतिषेध न किया हो, तो वह बहुमत आचरित ही समझना चाहिए। (अनाचरित नहीं।) तीर्थोद्गार आदि ग्रन्थों में भी कहा है कि शालिवाहन राजा ने संघ के आदेश से श्री कालिकाचार्य द्वारा चतुर्दशी के दिन चौमासी और चौथ के दिन संवत्सरी करायी। नौसौ तिरानवे के साल चतुर्विध श्रीसंघ ने चतुर्दशी के दिन चौमासी प्रतिक्रमण किया। वह आचरणा प्रमाणभूत है। इस विषय का सविस्तृत वर्णन देखना हो तो पूज्यश्री कुलमंडन सूरि विरचित "विचारामृतसंग्रह' देखो। प्रतिक्रमण विधि : ... प्रतिक्रमण करने की विधि योगशास्त्र की वृत्ति में कही हुई चिरंतनाचार्य कृत गाथाओं पर से निश्चित करनी चाहिए यथा
पंचविहायारविसुद्धिहेउमिह साहु सावगो वावि।
पडिकमणं सह गुरुणा, गुरुविरहे कुणइ इक्कोऽवि ।।१।। अर्थः इस मनुष्य भव में साधु को तथा श्रावक को भी पंचविध आचार की शुद्धि
करनेवाला प्रतिक्रमण गुरु के साथ या गुरु का योग न हो तो अकेले ही करना चाहिए।॥१॥ वंदित्तु चेइयाई, दाउं चउराइए खमासमणे।
भूनिहिअसिरो सयला-इआरमिच्छोक्कडं देइ ।।२।। अर्थः चैत्यवन्दनकर, चार खमासमण दे भूमि पर मस्तक रख सर्व अतिचार का
मिच्छादुक्कडं देना।।२।। सामाइअपुव्वमिच्छा-मि ठाइठं काउसग्गमिच्चाइ। सुत्तं मणिअ पलंबिअ-भुअ कुप्परधरिअपहिरणओ ॥३॥ घोडगमाईदोसे-हिं विरहिअंतो करेइ उस्सग्गं।
नाहिअहो जाणुडं, चउरंगुलठइअकडिपट्टो ॥४॥ अर्थः सामायिक सूत्र कथनकर 'इच्छामि ठामि काउस्सग्गं" इत्यादि सूत्र बोलना