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________________ 301 श्राद्धविधि प्रकरणम् स्वाध्याय : अब गाथा के उत्तरार्द्ध की व्याख्या करते हैं भोजन करने के बाद दिवसचरिम अथवा ग्रंथिसहित पच्चक्खाण आदि गुरु प्रमुख को दो बार वन्दना करके ग्रहण करना। और गीतार्थमुनिराज अथवा गीतार्थ श्रावक,सिद्धपुत्र आदिकेपास योग्यतानुसार पांच प्रकार का स्वाध्याय करना। १ वाचना, २ पृच्छना, ३ परावर्तना, ४ धर्मकथा, और ५ अनुप्रेक्षा, ये स्वाध्याय के पांच प्रकार हैं। जिसमें निर्जरा के लिए यथायोग्य सूत्र आदि का दान करना अथवा ग्रहण करना, उसे वाचना कहते हैं। वाचना में कुछ संशय रहा हो वह गुरु को पूछना उसे पृच्छना कहते हैं। पूर्व में पढ़े हुए सूत्रादिक भूल न जाये उसके लिये पुनरावृत्ति करना उसे परावर्तना कहते हैं। जम्बूस्वामी आदि स्थविरों की कथा सुनना अथवा कहना उसे धर्मकथा कहते हैं। मन में ही बार-बार सूत्रादिक का स्मरण करना उसे अनुप्रेक्षा कहते हैं। यहां गुरु मुख से सुने हुए शास्त्रार्थका ज्ञानीपुरुषों के पास विचार करने रूपी स्वाध्याय विशेष कृत्य के समान समझना चाहिए। कारण कि, 'भिन्न-भिन्न विषय के ज्ञाता पुरुषों के साथ शास्त्रार्थ के रहस्य की बातों का विचार करना' ऐसा श्री योगशास्त्र का वचन है। यह स्वाध्याय बहुत ही गुणकारी है। कहा है कि, स्वाध्याय से श्रेष्ठ ध्यान होता है, सर्व परमार्थ का ज्ञान होता है, तथा स्वाध्याय में रहा हुआ पुरुष क्षण-क्षण में वैराग्य दशा पाता है। पांच प्रकार के स्वाध्याय पर आचारप्रदीप ग्रंथ में उत्कृष्ट दृष्टांतों का वर्णन किया गया है, इसलिए यहां नहीं किया गया।८॥ मूलगाथा - ६ - संझाइ जिणं पुणरवि, पूअइ पडिक्कमइ कुणइ तह विहिणा। विस्समणं सज्झायं, गिहंगओ तो कहइ धम्मं ॥ संक्षेपार्थः संध्या समय पुनः अनुक्रम से जिनपूजा, प्रतिक्रमण, इसी प्रकार विधि के अनुसार मुनिराज की सेवा भक्ति और स्वाध्याय करना; पश्चात् घर जाकर स्वजनों को धर्मोपदेश करे। विस्तारार्थ : श्रावक के लिए नित्य एकाशन करना, यह उत्सर्गमार्ग है। कहा है किश्रावक उत्सर्गमार्ग से सचित्त वस्तु का त्यागी, नित्य एकाशन करनेवाला, ब्रह्मचर्य व्रत पालन करनेवाला होता है, परन्तु जो नित्य एकाशन न कर सके, उसको दिन के आठवें चौघड़िए में प्रथम दो घड़ियों में अर्थात् दो घड़ी दिन बाकी रहने पर भोजन-पानी का त्याग करना। अन्तिम दो घड़ी में भोजन करने से रात्रि-भोजन के महादोष का प्रसंग आता है। सूर्यास्त के अनंतर रात्रि में देर से भोजन करने से महान् दोष लगता है। उसका दृष्टांत सहित स्वरूप श्रीरत्नशेखरसूरि (प्रस्तुत ग्रन्थकारः) विरचित अर्थदीपिका में देखो। भोजन करने के उपरांत पुनः सूर्योदय हो, तब तक चौविहार-तिविहार अथवा
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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