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________________ 300 श्राद्धविधि प्रकरणम् करके तुरंत बैठे रहने से मेद से पेट बढ़ जाता है। चिता सो रहने से बलवृद्धि होती है; बायीं करवट सो रहने से आयुष्य बढ़ती है और दौड़ने से मृत्यु संमुख आती है। भोजनोपरांत तुरत बायीं करवट सो रहना; किन्तु निद्रा नहीं लेनी चाहिए, अथवा सो कदम चलना चाहिए। यह भोजन की लौकिकविधि है। सिद्धांत में कही हुई विधि इस प्रकार है सुश्रावक निरवद्य, निर्जीव से और अशक्त हो तो परित्तमिश्र आहार से निर्वाह करनेवाले होते हैं। श्रावक ने साधु की तरह सरसर अथवा चवचव शब्द न करते, अधिक उतावल व अधिक स्थिरता न रखते, नीचे दाना अथवा बिंदु न गिराते तथा मन, वचन, काया की यथोचित गुप्ति रखकर उपयोग से भोजन करना चाहिए। ___ जिस प्रकार गाड़ी हांकने के कार्य में अभ्यंजन (पइये में तैलादि) लेप लगाया जाता है, उसी अनुसार संयमरूपी रथ चलाने के लिए साधुओं को आहार कहा गया है। अन्यगृहस्थों ने अपने लिये किया हुआ तीक्ष्ण, कटु, तूरा, खट्टा, मीठा अथवा खारा जैसा कुछ अन्न मिले वह साधुओं को मीठे घृत की तरह भक्षण करना। इसी तरह रोग, मोह का उदय, स्वजन आदि का उपसर्ग होने पर, जीवदया के रक्षणार्थ, तपस्या के हेतु तथा आयुष्य का अन्त आने पर शरीर को त्याग करने के लिए आहार को त्याग करना चाहिए, यह विधि साधु आश्रित है। श्रावक आश्रयी विधि भी यथायोग जानना चाहिए। अन्य स्थान में भी कहा है कि विवेकी पुरुष को शक्ति हो तो देव, साधु, नगर का स्वामी, तथा स्वजन संकट में पड़ा हो, अथवा सूर्य और चन्द्र का ग्रहण लगा हो, तब भोजन न करना। इसी प्रकार अजीर्ण से रोग उत्पन्न होते हैं, इसलिए अजीर्ण नेत्रविकार आदि रोग हुए हों तो भोजन न करना चाहिए। कहा है कि ज्वर के प्रारंभ में शक्ति कम नहो उतने लंघन करना। परंतु वायु से, थकावट से, क्रोध से, शोक से, कामविकार से और प्रहार होने से उत्पन्न हुए ज्वर में लंघन न करना चाहिए, तथा देव, गुरु को वन्दना आदि का योग न हो; तीर्थ अथवा गुरु को वन्दना करनी हो, विशेष व्रत पच्चक्खाण लेना हो, महान् पुण्यकार्य आरम्भ करना हो उस दिन व अष्टमी, चतुर्दशी आदि श्रेष्ठ पर्व के दिन भी भोजन नहीं करना चाहिए। मासक्षमण आदि तपस्या से इस लोक परलोक में बहुत गुण उत्पन्न होते हैं। कहा है कि तपस्या से अस्थिर कार्य हो वह स्थिर, टेढ़ा हो वह सरल, दुर्लभ हो वह सलभ तथा असाध्य हो वह सुसाध्य हो जाता है। वासुदेव, चक्रवर्ती आदि लोगों के समानदेवताओं को अपना सेवक बना लेना आदि इस लोक के कार्य भी अट्ठम आदि तपस्या से ही सिद्ध होते हैं; अन्यथा नहीं। ___ सुश्रावक भोजन करने के उपरांत नवकार स्मरण करके उठे और चैत्यवंदन विधि से योगानुसार देव तथा गुरु को वन्दना करे। उपस्थित गाथा में 'सुपत्तदाणाइजुत्तिए' इस पद में आदि शब्द का ग्रहण किया है इससे यह सर्वविधिसूचित की गयी
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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