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श्राद्धविधि प्रकरणम्
सुलक्षणा व सुन्दर हंसी नामक कन्या हुई । लौकिक ऐसी रीति है कि जो वस्तु थोड़ी होती है उस पर विशेष प्रीति रहती है। तदनुसार इस कन्या पर चारों पुत्रों की अपेक्षा मातापिता की विशेष प्रीति थी। जब वह कन्या आठ वर्ष की हो गयी तब दूसरी रानी ने भी एक सर्वोत्तम सारसी नामक कन्या को जन्म दिया। मुझे ऐसा ज्ञात होता है कि विधाता ने सम्पूर्ण पृथ्वी तथा स्वर्ग का सार लेकर इन दोनों कन्याओं की रचना की है। क्योंकि उन दोनों की तुलना आपस में ही हो सकती है। सारे विश्व में ऐसी कोई कुमारी नहीं कि जो इनकी समानता कर सकती हो। उन दोनों की परस्पर इस प्रकार प्रीति हो गयी कि वे यह सोचने लगीं कि 'हम दोनों का शरीर अलग-अलग न होकर एक ही होता तो उत्तम था, पर बड़ा खेद है कि ऐसा नहीं हुआ' यथा क्रम जब दोनों कामदेवरूपी हस्ती के क्रीड़ावन के समान, तरुणावस्था को प्राप्त हुई तब उन्होंने वियोग भय से यह निश्चय किया कि 'हम दोनों एक ही पति को वरेंगी' पश्चात् हमारे महाराज ने दोनों पुत्रियों को मनोहर वर की प्राप्ति के निमित्त स्वयं यथाविधि स्वयंवर मंडप की रचना की । उसकी रचना इतनी सुन्दरता से की गयी है कि उसकी शोभा का वर्णन करना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है। घास तथा धान्यादिक की तो इतनी बड़ी राशियां (ढेर ) की गयी हैं कि उनके संमुख पर्वत की ऊंचाई की कोई गिनती नहीं । तत्पश्चात् महाराज ने अंग, बंग, कलिंग, आंध्र, जालंधर, मरुस्थल, लाट, भोट, महाभोट, मेदपाट, विराट, गौड़, चौड़, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, कुरु, जंगल, गुर्जर, आभीर, कीर, काश्मीर, गोल्ल, पंचाल, मालव, हूण, चीन, महाचीन, कच्छ, कर्नाटक, कोंकण, सपादलक्ष, नेपाल, कान्यकुब्ज, कुंतल, मगध, निषध, सिन्धु, विदर्भ, द्रविड, उड्रक, आदि देशों के अनेक राजाओं को स्वयंवर में पधारने के लिए निमंत्रित किये हैं। हे मलयदेशाधिपति महाराज! वहां पधारने के लिए विनती करने के निमित्त मेरे स्वामी ने मुझे आपके चरणों में भेजा है, अतएव आप पधारकर स्वयंवर को सुशोभित कीजिए। '
दूत के वचन सुनकर जितारि राजा के मन में उन कन्याओं की अभिलाषा तो उत्पन्न हुई, किन्तु 'वे कन्याएं मुझे ही वरेंगी इसका क्या विश्वास?' जाऊं अथवा नहीं, इत्यादि संकल्प विकल्प करने लगा । निदान 'पांच के साथ अपने को भी जाना चाहिए' यह विचारकर उसने प्रस्थान किया। मार्ग में उत्तम शकुन होने से वह बड़े उत्साह से वहां गया। इसी प्रकार बहुत से अन्य राजा भी वहां एकत्रित हुए।
विजयदेव राजा ने समस्त राजाओं का यथायोग्य सत्कार किया । सब राजागण देवताओं की तरह ऊंचे ऊंचे सिंहासनों पर बैठे, इतने में साक्षात् लक्ष्मी और सरस्वती के समान दोनों कुमारियां स्नानकर, तिलक लगाकर, शुद्ध वस्त्र तथा आभूषण पहनकर, पालकी में बैठकर मंडप में आयीं। जिस प्रकार बाजार में ग्राहकों को कोई दुर्लभ वस्तु बिक्री से लेना हो तब आगे बढ़ बढ़कर शीघ्रता से एक दूसरे से अधिक मूल्य देने लगते हैं, उसी प्रकार मंडप में बैठे हुए सब राजाओं ने उन दोनों कन्याओं की प्राप्ति की इच्छा