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________________ 298 श्राद्धविधि प्रकरणम् - वास्तविक अमृत हो तो भी किसी समय उपयोग न करने से प्रकृति को अनुकूल न हो तो वही विष समान हो जाता है, ऐसा नियम है, तथापि हितकारी वस्तु का सात्म्य न हो तो भी उसीको उपयोग में लेना, और अपथ्य वस्तु सात्म्य हो तो भी न वापरना चाहिए। 'बलिष्ठ पुरुष को सर्व वस्तुएं पथ्य (हितकारी) हैं।' ऐसा सोचकर कालकूट विष भक्षण करना अनुचित है। विषशास्त्र का जाननेवाला मनुष्य सुशिक्षित होता है, तो भी किसी समय विष खाने से मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। और भी कहा है कि जो गले के नीचे उतरा वह सब अशन कहलाता है? इसीलिए चतुरमनुष्य को गले के नीचे उतरे वहां तक क्षणमात्र सुख के हेतु जीभ की लोलुपता नहीं रखनी चाहिए। ऐसा वचन है, अतएव जीभ की लोलुपता भी छोड़ देनी चाहिए। तथा अभक्ष्य, अनंतकाय और बहुत सावद्य वस्तु भी व्यवहार में नहीं लानी चाहिए। अपने अग्नि बल के अनुसार परिमित भोजन करना चाहिए। जो परिमित भोजन करता है, वह बहु भोजन करने के समान है। अतिशय भोजन करने से अजीर्ण, वमन, विरेचन (अतिसार) तथा मृत्यु आदि भी सहज में ही हो जाते हैं। कहा है कि हे जीभ ! तू भक्षण करने व बोलने का परिमाण रख । कारण कि, अतिशय भक्षण करने तथा अतिशय बोलने का परिणाम भयंकर होता है । है जीभ ! जो तू दोषरहित तथा परिमित भोजन करे, और जो दोष रहित तथा परिमित बोले, तो कर्मरूप वीरों के साथ लड़नेवाले जीव से तुझको जयपताका मिलेगी ; ऐसा निश्चय समझ । हितकारी, परिमित और परिपक्व भोजन करनेवाला, बायीं करवट से सोनेवाला, हमेशा चलने फिरने का परिश्रम करनेवाला, मलमूत्र त्याग करने में विलंब न करनेवाला और स्त्रियों के सम्बन्ध में अपने मन को वश में रखनेवाला मनुष्य रोगों को जीतता है । व्यवहारशास्त्रादिक के अनुसार भोजन करने की विधि इस प्रकार है अतिशय प्रभातकाल में, बिलकुल सन्ध्या के समय, अथवा रात्रि में तथा गमन करते भोजन न करना। भोजन करते समय अन्न की निन्दा न करना, बायें पैर पर हाथ भी न रखना तथा एक हाथ में खाने की वस्तु लेकर दूसरे हाथ से भोजन न करना । खुली जगह में, धूप में, अन्धकार में अथवा वृक्ष के नीचे कभी भी भोजन न करना । भोजन करते समय तर्जनी अंगुली खडी न रखना। मुख, वस्त्र और पग धोये बिना, नग्नावस्था से, मैले वस्त्र पहनकर तथा बाये हाथ में थाली लेकर भोजन न करना । एक ही वस्त्र पहनकर, सिर पर भीगा हुआ वस्त्र लपेटकर, अपवित्र शरीर से तथा जीभ की अतिशय लोलुपता रखकर भोजन न करना । पैर में जूते पहनकर, चित्त स्थिर न रखकर, केवल जमीन पर अथवा, पलंग पर बैठकर, उपदिशा अथवा दक्षिण दिशा को मुखकर तथा पतले आसन पर बैठकर भोजन न करना । आसन पर पैर रखकर तथा श्वान, चांडाल और पतित लोगों की दृष्टि पड़ती हो ऐसे स्थान में भोजन न करना। फूटे हुए तथा मलीन पात्र में भी भोजन न करना । अपवित्र वस्तुओं द्वारा उत्पन्न हुआ, गर्भहत्या आदि करनेवाले लोगों का देखा हुआ, रजस्वला स्त्री का स्पर्श किया हुआ
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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