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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 297 तीर्थंकरों ने भी सांवत्सरिक दान देकर दीन लोगों का उद्धार किया। विक्रम राजा ने भी अपने राज्य के सर्व लोगों को ऋण रहित किया, जिससे उसके नामका संवत् चला | दुष्काल आदि आपत्ति के समय लोगों को सहायता देनेसे महान् फल प्राप्त होता है। कहा है कि — शिष्य की विनय से, योद्धा की समरभूमि में, मित्र की संकट के समय और दान की दुर्भिक्ष पड़ने से परीक्षा होती है। संवत् १३१५ में दुर्भिक्ष पड़ा था, तब भद्रेश्वर नगर निवासी श्रीमाल ज्ञाति के जगडुशाह ने एक सौ बारह सदावर्त स्थापित कर दान दिया था। कहा है कि — दुर्भिक्ष के समय हम्मीर ने बारह, वीसलदेव ने आठ, बादशाह ने इक्कीस और जगडुशाह ने एक हजार धान्य के मूड़े (माप विशेष) दिये। उसी प्रकार अणहिल्लपुर पाटण में 'सिंधाक' नाम का एक बड़ा सराफ हुआ था। उसने अश्व, गज, बड़े-बड़े महल आदि अपार ऋद्धि उपार्जन की थी। संवत् १४२९ में उसने आठ मंदिर बंधाये और महायात्राएं कीं। एक समय उसने ज्योतिषी के कहने पर से भविष्य में आनेवाले दुर्भिक्ष का हाल सुना और दो लाख मन धान्य संग्रह करके रखा जिससे दुर्भिक्ष पड़ने पर भाव की तेजी से उसे बहुत लाभ हुआ, तब उसने चौबीस हजार मन धान्य अनाथ लोगों को दिया, एक हजार बन्दियों को छुड़ाया, छप्पन राजाओं को छुड़ाया, जिनमंदिर खुलवाये, श्री जयानन्दसूरि तथा श्री देवसुन्दरसूरि के पगले स्थापित किये इत्यादि उसके बहुत से धर्मकृत्य प्रसिद्ध हैं। इसलिए श्रावक को विशेषकर भोजन के समय अनुकम्पादान अवश्य करना चाहिए। सामान्य मनुष्य को भी घर में अन्न आदि इतना बनाना कि, जिससे कोई गरीब आवे तो यथाशक्ति उसकी इच्छा पूर्ण की जा सके। इसमें कोई विशेष खर्च भी नहीं होता । कारण कि, गरीबलोगों को थोड़े में ही सन्तोष हो जाता है। कहा है कि हाथी के आहार में से एक दाना नीचे गिर पड़े तो उससे हाथी को क्या कमी हो सकती है? परन्तु उसी एक दाने पर कीड़ी का तो सम्पूर्ण कुटुम्ब निर्वाह कर लेता है। दूसरे उपरोक्त कथनानुसार ऐसा निरवद्य आहार किंचित् अधिक तैयार किया हुआ हो तो उससे सुपात्र का योग मिल जाने पर शुद्ध दान भी दिया जा सकता है। भोजन : इसी प्रकार माता, पिता, बन्धु, भगिनी, पुत्र, कन्या, पुत्रवधू, सेवक, रोगी, कैदी तथा गाय आदि जानवरों को उचित भोजन दे, पंचपरमेष्ठी का ध्यानकर तथा पच्चक्खाण और मात्रा का यथोचित उपयोग रख करके रुचि के अनुसार भोजन करना । कहा है कि - उत्तमपुरुषों ने प्रथम पिता, माता, बालक, गर्भिणी, वृद्ध और रोगी इनको भोजन कराकर पश्चात् स्वयं भोजन करना। धर्मज्ञानी पुरुष को अपने घर के पशु तथा सेवा में रखे हुए लोगों की व्यवस्था करके पश्चात् भोजन करना चाहिए। भोजन में सदैव सात्त्विक वस्तु व्यवहार में लेनी चाहिए। आहार, पानी आदि वस्तु स्वभाव के प्रतिकूल हों तो भी किसीको वे अनुकूल होती हैं, इसे सात्त्विक कहते हैं। जन्म से ही प्रामाणिक विष भक्षण करने की आदत डाली हो तो वह विष ही अमृत समान होता है; और
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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