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________________ 288 श्राद्धविधि प्रकरणम् भी पीड़ित है। वही राक्षस अभी भी जो कोई नगर के अन्दर प्रवेश करता है, उसको क्षणमात्र में मार डालता है। इसलिए हे वीरपुरुष! तेरे हित की इच्छा से मैं यम के मुख सदृश इस नगरी में प्रवेश करते तुझे रोकती हूं। मैना का ऐसा हितकारी वचन सुनकर व उसकी वाक्पटुता से कुमार को आश्चर्य हुआ, परन्तु राक्षस से वह लेशमात्र भी न डरा, विवेकीपुरुष को कोई कार्य करते समय उत्सुक, कायर तथा आलसी न होना चाहिए। इस पर भी कुमार उस नगर में प्रवेश करने को बहुत उत्सुक हुआ। व राक्षस का पराक्रम देखने के कौतुक से संग्रामभूमि में उतरने की तरह शीघ्र नगरी में घुसा। आगे जाकर उसने देखा कि, कहीं मलयपर्वत के समान चंदनकाष्ठ के ढेर पड़े हैं,कहीं युगलिएको चाहिएवैसे पात्र देनेवाले भृगांगकल्पवृक्ष की तरह सुवर्ण के, चांदी के तथा अन्य पात्रों के ढेर पड़े थे; खलियान में पड़े हुए धान्य के ढेर के समान वहां किसीजगह कपूरसाल आदि धान्य के ढेर लग रहे थे, कोई स्थान में अपार सुपारी आदि किराने पड़े हुए थे, किसी ओर हलवाइयों की दुकानों की पंक्तियां थीं, किसी ओर सितांशु चंद्रमा की तरह श्वेतकपड़ेवालों की दुकाने थीं; किसी ओर घनसारवाले निधि की तरह कपूर आदि सुगन्धित वस्तुओं की दुकानें थीं, कहीं हिमालय पर्वत की तरह अनेक प्रकार की औषधियों का संग्रह रखनेवाली गांधी की दुकानें थी; अभव्य जीवों की धर्मक्रिया जैसे भाव रहित होती है, वैसे कहीं भाव रहित अक्ल की दुकानें थी; सिद्धांत की पुस्तकें जैसे सुवर्ण (श्रेष्ठ हस्ताक्षर) से भरी होती हैं, वैसी कहीं सुवर्ण से भरी हुई सराफों की दुकानें थीं, कहीं अनंतमुक्ताढ्य (अनंतसिद्धों से शोभित) मुक्तिपद की तरह अनंतमुक्ताढ्य (अपार मोतियों से सुशोभित) मोतियों की दुकानें थीं,कहीं विदूम पूर्ण वनों के सदृश विदूम पूर्ण (प्रवाल से भरी हुई) प्रवाल की दुकानें थी,कहीं रोहणपर्वत की तरह उत्तमोत्तम रत्नयुक्त जवाहरात की दुकानें थीं; किसी-किसी स्थान में आकाश के समान देवताधिष्ठित कुत्रिकापण दुकानें थीं; सोये हुए अथवा प्रमादी मनुष्य का मन जैसे शून्य दिखता है उसी प्रकार उस नगरी में सब जगह शून्यता थी; परन्तु विष्णु जहां जाये वहां लक्ष्मी उसके साथ रहती है, उस तरह वहां स्थान-स्थान में लक्ष्मी बिराज रही थी। बुद्धिशाली रत्नसारकुमार उस रत्नमयनगरी को देखता हुआ इन्द्र की तरह राजमहल में गया। क्रमशः गजशाला, अश्वशाला, शस्त्रशाला आदि को पारकर वह चक्रवर्ती की तरह चंद्रशाला (अंतिम मंजल) में पहुंचा वहां उसने इन्द्र की शय्या के समान अत्यन्त मनोहर एक रत्नजड़ित शय्या देखी। वह साहसी और अभय कुमार निद्रावश हो थकावट दूर करने के लिए अपने घर की तरह हर्ष पूर्वक उस शय्या पर सो गया। इतने में मनुष्य के पैर की हालचाल सुनकर राक्षस क्रुद्ध हुआ, और वीर शिकारी जैसे सिंह के पीछे जाता है वैसे वह कुमार के पास आया। और उसे सुखपूर्वक सोता हुआ देखकर उसने मन में विचार किया कि, जो बात अन्य कोई व्यक्ति मन में भी नहीं ला सकता, वही बात इसने सहज कौतुक से कर ली। धृष्टता के कार्य विचित्र प्रकार के
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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