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________________ 278 श्राद्धविधि प्रकरणम् विविध शस्त्रों से कुमार को प्रहार करनेवाला वह विद्याधर राजा सहस्रार्जुन की तरह असा प्रतीत होने लगा। शुद्धचित्त रत्नसारकुमार 'अन्याय से संग्राम करनेवाले किसी भी पुरुष की जीत कभी नहीं होती' यह सोच बहुत उत्साहित हुआ । विद्याधर राजा के किये हुए सर्वप्रहारों से अश्वरत्न की चालाकी से अपनी रक्षा करनेवाले कुमार ने शीघ्र क्षुरप्रनामक बाण हाथ में लिया । व शस्त्रभेदन की रीत में दक्ष होने के कारण उसने, जैसे उस्तरे से बाल काटे जाते हैं वैसे उसके सर्व शस्त्र तोड़ डाले। साथ ही अर्द्धचन्द्रबाण से विद्याधर राजा के धनुष्य के भी दो टुकड़े कर दिये, और दूसरे अर्द्धचन्द्रबाण से उसकी अभेद्य छाती में प्रहार किया। बड़ा ही आश्चर्य है कि एक वणिक्कुमार में भी ऐसा अलौकिक पराक्रम था । विद्याधर राजा की छाती से रक्त का झरना बह निकला । प्रहार से दुःखित व शस्त्र रहित होने से वह पानखर ऋतु में पत्र होते हुए पीपल वृक्ष के समान हो गया। इस अवस्था में भी उसने बहुरूपिणी विद्या द्वारा वेग बहु होने के लिए क्रोधित हो बहुत से रूप प्रकट किए। वे असंख्य रूप पवन के तूफान की तरह संपूर्ण जगत् को बड़े भयानक हुए। प्रलयकाल के भयंकर बादलों के समान उन रूपों से सर्व प्रदेश रुका हुआ होने से आकाश इतना भयानक हो गया कि देखा नहीं जा सकता था। कुमार ने जहां-जहां अपनी दृष्टि फेरी वहां उसे भयंकर भुजाओं के समुदाय युक्त विद्याधर राजा नजर आया। परन्तु उसे लेशमात्र भी भय न हुआ। धीरपुरुष कल्पान्त काल आ पड़ने पर भी कायर नहीं होते । पश्चात् कुमार ने बेनिशान चारों ओर बाणवृष्टि शुरू की। ठीक ही है, संकट समय आने पर धीरपुरुष अधिक पराक्रम प्रकट करते हैं। कुमार को भयंकर संकट में फंसा हुआ देखकर चन्द्रचूडदेवता हाथ में विशाल मुद्गर लेकर विद्याधर राजा को प्रहार करने के लिए उठा । गदाधारी भीमसेन की तरह भयंकर रूपधारी चन्द्रचूड देवता को आता देख दुःशासन समान विद्याधर राजा बड़ा ही क्षुभित हुआ। तथापि वह धैर्य के साथ अपने सर्वरूप से, सर्वभुजाओं से, सर्वशक्ति से और सर्व तरफ से देवता को प्रहार करने लगा। देवता की अचिन्त्य शक्ति व कुमार के अद्भुत भाग्य से चन्द्रचूड पर किये हुए शत्रु के सर्व प्रहार कृतघ्न मनुष्य पर किये हुए उपकार की तरह निष्फल हुए। जैसे इन्द्र वज्र से पर्वत को प्रहार करता है वैसे क्रोध से दुर्धर हुए चन्द्रचूड ने विद्याधर राजा के मुख्य स्वरूप पर प्रहार किया, तब कायर मनुष्यों के प्राण निकल जावे ऐसा भयंकर शब्द हुआ। विद्याबल से अहंकारी हुए, त्रैलोक्यविजयी सत्ताधारी वासुदेव समान विद्याधर राजा की वज्र के सदृश मजबूत मस्तक उस प्रहार से विदीर्ण नहीं हुआ। तथापि भय पाकर उसकी बहुरूपिणी महाविद्या कौएँ के समान शीघ्र भाग गयी। वास्तव में देवताओं की सहायता आश्चर्यकारी होती है इसमें कुछ शक नहीं। 'यह कुमार स्वभाव से ही शत्रुओं को राक्षस समान भयंकर लगता था, और उसमें भी अग्नि को सहायक जैसे पवन मिलता है, वैसे इसे अजेय देवता सहायक मिला है।' यह विचारकर विद्याधर राजा की विद्या भाग गयी। कहा है कि जो भागे सो
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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