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श्राद्धविधि प्रकरणम्
277 डराता है? यह डर किसी बालक के संमुख चलेगी, वीर के संमुख नहीं। अन्य पक्षी तो ताली बजाने से ही डर जाते हैं, परंतु नगारा बजने पर भी ठिठाई रखनेवाला मठ के अंदर रहनेवाला कपोत बिलकुल नहीं डरता है। इस शरण में आयी हुई हंसिनी को कल्पांत हो जाने पर भी मैं नहीं छोड़ सकता। इतने पर भी सर्प के मस्तक पर स्थित मणि की तरह तू इसकी इच्छा करता है, इसलिए तुझे धिक्कार है। इसकी आशा छोड़कर तू शीघ्र यहां से भाग जा, अन्यथा मैं तेरे दश मस्तकों की दश दिक्पालों को बलि दूंगा।'
इतने में ही रत्नसारकुमार को सहायता करने के इच्छुक चन्द्रचूड़देवता ने मयूर पक्षी का रूप त्यागकर शीघ्र अपना देवरूप बनाया। और हाथ में तरह-तरह के आयुध धारण करके कुमार के पास आया। पूर्वभव के किये हुए कर्मो की बलिहारी है। उसने कुमार को कहा—'हे कुमार तू तेरी इच्छा के अनुसार युद्धकर, मैं तुझे शस्त्र दूंगा व तेरे शत्रु को चूर्ण कर डालूंगा।' यह सुन लोह कवच तथा कुबेर का पक्ष मिलने से तक्षकादिक की तरह कुमार को द्विगुण उत्साह हुआ और हंसिनी को तिलकमंजरी के हाथ में देकर, स्वयं तैयार हो विष्णुजैसे गरुड़ पर चढ़ते हैं वैसे समरान्धकार अश्व पर चढ़ा। तब चन्द्रचूड ने शीघ्र सेवक की तरह कुमार को गाण्डीव को तुच्छ करनेवाले धनुष्य और बाणों के तर्कश दिये। उस समय रत्नसारकुमार देदीप्यमान काल की तरह प्रचण्ड भुजदण्ड में धारण किये हुए धनुष्य का भयंकर टंकार शब्द करता हुआ आगे बढ़ा। पश्चात् दोनों योद्धाओं ने धनुष्य की टंकार से दशों दिशाओं को बहरी कर डालें ऐसा बाणयुद्ध प्रारंभ किया। दोनों जनों के हाथ इतने कुशल थे कि कोई उनका तर्कश में से बाण निकालना, धनुष्य को जोड़ना और छोड़ना देख ही नहीं पाता था, केवल एक सरीखी जो बाण वृष्टि हो रही थी वह तोते आदि के देखने में न आयी।
ठीक ही है,जल से पूर्ण नवीन मेघ वृष्टि करे तब वृष्टि की धारा का पूर्वापर क्रम कैसे ज्ञात हो सकता है? बाण फेंकने में स्वाभाविक हस्तचातुर्य धारण करनेवाले और कभी भी आकुल व्याकुल न हो ऐसे उभयवीरों के केवल बाण ही परस्पर प्रहार करते थे परन्तु उनके शरीर में एक भी बाण ने स्पर्श नहीं किया, अत्यन्त क्रोधित हुए उन दोनों महायोद्धाओं में बहुत समय तक सेल्ल, बावल्ल, तीरी, तोमर, तबल, अर्द्धचन्द्र, अर्द्धनाराच, नाराच आदि अनेक प्रकार के तीक्ष्णबाणों से युद्ध होता रहा। परन्तु दोनों में से कोई भी न थका, एक ही समान दो कुशल जुआरी हो तो उनमें परस्पर विजयका जैसे संशय रहता है, ऐसी ही गति इन दोनों की थी। ठीक ही है, एक विद्या के बल से
और दूसरा देवता के बल से बलिष्ठ हुए, वालि और रावण के समान उन दोनों योद्धाओं में किसकी विजय होगी, यह शीघ्र ही कैसे निश्चय किया जा सकता है? सुनीति से उपार्जित धन जैसे क्रमशः चढ़ती दशा में आता है, वैसे नीति और धर्म का विशेष बल होने से रत्नसारकुमार अनुक्रम से उत्कर्ष हुआ। उससे हतोत्साह हो विद्याधर राजा ने अपना पराजय हुआ समझकर संग्राम करने की सीधी राह छोड दी, और वह अपनी सर्वशक्ति से कुमार पर टूट पड़ा। बीस भुजाओं में धारण किये हुए