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________________ 267 श्राद्धविधि प्रकरणम् पूर्वानुसार मार्ग चलने लगे। एक सरीखा प्रयाण करते हुए उन दोनों जनों ने क्रमशः हजारों विस्तृत वन, पर्वत, खाने, नगर, सरोवर, नदी आदि पार करके सामने एक अतिशय मनोहर वृक्षों से सुशोभित उद्यान देखा। वह उद्यान ऐसा दिखता था मानो अद्वितीय सुगंधित पुष्पों में भ्रमण करते हुए भ्रमरों के गुंजार शब्द से आदर पूर्वक रत्नसारकुमार का स्वागत कर रहे हैं। दोनोंजने उक्त उद्यान में प्रवेशकर अतिहर्षित हुए। उस उद्यान में तरह-तरह के रत्नों से सुशोभित एक श्री आदिनाथ भगवान का मंदिर था। वह अपनी फहराती हुई ध्वजा से दूर से ही रत्नसारकुमार को बुलाकर यह कह रहा था कि, 'हे कुमार! इस स्थान में तुझे इस भव तथा परभव की इष्टवस्तु का लाभ होगा।' कुमार अश्व पर से उतरा तथा उसे तिलकवृक्ष की पींड में बांध, कुछ सुगन्धित पुष्प एकत्रितकर तोते के साथ मंदिर में गया। वह यथाविधि श्री आदिनाथ भगवान की पूजाकर इस प्रकार स्तुति करने लगा। श्रीमधुगादिदेवाय, सेवाहेवाकिनाकिने। नमो देवाधिदेवाय, विश्वविश्चैकश्चने ॥१८६।। परमानन्दकन्दाय, परमार्थकदेशिने। परमब्रह्मस्वरूपाय, नमः परमयोगिने ॥१८७।। परमात्मस्वरूपाय, परमानन्ददायिने। नमस्त्रिजगदीशाय, युगादीशाय तायिने ।।१८८।। योगिनामप्यगम्याय, प्रणम्याय महात्मनाम्। नमः श्रीशम्भवे विश्वप्रभवेऽस्तु नमो नमः ।।१८९।। 'सम्पूर्ण जगत के ज्ञाता और देवता भी जिसकी सेवा करने को उत्सुक रहते हैं, ऐसे श्री देवाधिदेव श्री आदिनाथ भगवान् को मेरा नमस्कार हो। परमानन्दकन्द, परमार्थोपदशेक, परब्रह्मस्वरूप और परमयोगी श्री आदिनाथ भगवान्को मेरा नमस्कार हो। परमात्मस्वरूप, परमानन्ददाता, त्रिलोकनाथ और जगद्रक्षक ऐसे श्रीयुगादिदेव को मेरा नमस्कार हो। महात्मापुरुषों के वन्दन करने योग्य,लक्ष्मी तथा मंगल के निधि तथा योगियों को भी जिनके स्वरूप का ज्ञान नहीं होता ऐसे श्री आदिनाथ भगवान् को मेरा नमस्कार हो।' उल्लास से जिसके शरीर पर फणस फल के कंटक समान रोमराजि विकसित हुई है ऐसे रत्नसारकुमार ने ऊपर लिखे अनुसार जिनेश्वर भगवान् की स्तुतिकर, तत्त्वार्थकी प्राप्ति होने से ऐसा माना कि, 'मुझे प्रवास का पूर्ण फल आज मिल गया।' पश्चात् उसने तृषा से पीड़ित मनुष्य की तरह मंदिर के समीप की शोभारूप अमृत का बार-बार पान करके तृप्ति-सुख प्राप्त किया। तदनन्तर अत्यन्त सुशोभित मंदिर के मत्तवारण-गवाक्ष ऊपर बैठा हुआ रत्नसार, मदोन्मत ऐरावत हस्ती पर बैठे हुए इन्द्र की तरह शोभने लगा व उसने तोते को कहा कि, 'उक्त तापसकुमार का हर्ष
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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