SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 242 श्राद्धविधि प्रकरणम् अर्थ ः धर्माचार्य की बतायी हुई रीति से आवश्यक आदि कृत्य करना तथा उनके पास शुद्ध श्रद्धापूर्वक धर्मोपदेश सुनना । आएसं बहु मन्नइ, इमेसिं मणसावि कुणइ नावन्नं । रुंभइ अवन्नवार्य, थुइवायं पयडइ सयावि ||३०|| अर्थ ः धर्माचार्य के आदेश का अत्यादर करे, उनकी मन से भी अवज्ञा न करे। अधर्मीलोगों के किये हुए धर्माचार्य के अवर्णवाद को यथाशक्ति रोके, किन्तु उपेक्षा न करे, कहा है कि सज्जनों की निन्दा करनेवाला ही पापी नहीं, परन्तु उस निंदा को सुननेवाला भी पायी है। तथा नित्य धर्माचार्य का स्तुतिवाद करे, कारण कि, प्रत्यक्ष अथवा पीठ पर धर्माचार्य की प्रशंसा करने से असंख्य पुण्यानुबंधि पुण्य संचित होता है। न हवइ छिद्दप्पेही, सुहिव्व अणुअत्तर सुहदुहेसु । पडिणी अपच्चवायं सव्वपयत्तेण वारेई ||३१|| " अर्थ ः धर्माचार्य के छिद्र न देखना, सुख में तथा दुख में मित्र की तरह उनके साथ वर्ताव करना तथा प्रत्यनीक लोगों के किये हुए उपद्रवों को अपनी पूर्णशक्ति से दूर करना। यहां कोई शंका करे कि, 'प्रमाद रहित धर्माचार्य में छिद्र न ही होते, इसलिए 'उन्हें न देखना' ऐसा कहना व्यर्थ है। तथा ममता रहित धर्माचार्य के साथ मित्र की तरह बर्ताव किस तरह करना?" इसका उत्तर 'सत्य बात है, धर्माचार्य तो प्रमाद व ममता से रहित ही हैं, परन्तु पृथक्पृथक् प्रकृति के श्रावकों को अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार धर्माचार्य में भी पृथक्-पृथक् भाव उत्पन्न होता है। स्थानांगसूत्र में कहा है कि, हे गौतम! श्रावक चार प्रकार के है। एक माता-पिता समान, दूसरे भाई समान, तीसरे मित्र समान, चौथे सौत समान।' इत्यादि इस ग्रंथ में पूर्व में इसका वर्णन पृ. ६१ पर हो गया है। प्रत्यनीक लोगों का उपद्रव दूर करने के विषय में कहा है कि - साहूण चेइआण य, पडिणीअं तह अवन्नवायं च । जिणपवयणस्स अहिअं, सव्वत्थामेण वारेइ ||१|| साधुओं का, जिनमंदिर का तथा विशेषकर जिनशासन का कोई विरोधी हो, अथवा कोई अवर्णवाद बोलता हो तो सर्वशक्ति से उसका प्रतिवाद करना । इस विषय पर भागीरथ नामक सगरचक्रवर्ती के पौत्र के जीव कुम्हार ने प्रान्त ग्राम निवासी साठ हजार मनुष्यों के किये हुए उपद्रव से पीड़ित यात्रिक संघ का उपद्रव दूर किया, वह उत्कृष्ट उदाहरण है। खलिअंमि चोइओ गुरुजणेण मन्नइ तहत्ति सव्वंपि । चोइ गुरुजणंपिहु, पमायखलिएसु एगंते ||३२||
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy