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________________ 224 श्राद्धविधि प्रकरणम् वह यद्यपि निष्ठावान, पढ़ी हुई तथा स्वाध्याय के ऊपर लक्ष रखनेवाली थी, तथापि विकथा के रस से वृथा रानी का कुशीलत्व आदि बोलने से राजा को उस पर रोष चढ़ा। पश्चात् उसकी जीभ काटकर उसे देश से निर्वासित कर दी। जिससे दुःखित रोहिणी ने अनेकों भवों में जीभ छेद आदि दुःख सहन किए। ___लोकविरुद्ध-लोक की तथा विशेषकर गुणीजनों की निन्दा नहीं करनी चाहिए। कारण कि, लोकनिन्दा करना और अपनी प्रशंसा करना ये दोनों बाते लोकविरुद्ध कहलाती हैं। कहा है कि दूसरे के भले बुरे दोष कहने में क्या लाभ है? उससे धन अथवा यश का लाभ तो होता नहीं, बल्कि जिसके दोष निकालें वह मानो अपना एक नया शत्रु उत्पन्न किया ऐसा हो जाता है। सुवि उज्जममाणं, पंचेव करिति रित्तयं समणं। अप्पथुई परनिंदा, जिब्मोवत्था.कसाया य ।।१।। निजस्तुति, २ परनिन्दा, ३ वश में न रखी हुई जीभ, ४ उपस्था याने जननेन्द्रिय और ५ कषाय ये पांच बातें संयम के निमित्त पूर्ण उद्यम करनेवाले मुनिराज को भी हीन कर देती हैं। जो वास्तव में किसी पुरुष में अनेक गुण हों तो वे गुण तो बिना कहे ही अपना उत्कर्ष करते ही हैं और जो (गुण) न हो तो व्यर्थ आत्मप्रशंसा करने से क्या होता है? आत्मश्लाघी मनुष्य को देखकर उसके मित्र हंसते हैं, बान्धवजन उसकी निंदा करते हैं, बड़े मनुष्य उसकी उपेक्षा करते हैं तथा उसके माता-पिता भी उसे अधिक नहीं मानते। परपरिभवपरिवादादात्मोत्कर्षाच्च बध्यते कर्म। नीचैर्गोत्रं प्रतिभवमनेकभवकोटिदुर्मोचम् ।। दूसरे का पराभव अथवा निंदा करने से अथवा अपना बड़प्पन आप प्रकट करने से भव-भव में नीच कर्म बंधता है। ये कर्म करोड़ों भव तक भी छूटना कठीन है। परनिंदा महान पाप है,कारण कि, बड़े खेद की बात है कि, निंदा करने से दूसरे के किये हुए भी पाप बिना किये ही निंदा करनेवाले को खड्डे में डालते हैं। यहां एक निंदक वृद्धा स्त्री का दृष्टान्त कहते हैं किवृद्धा स्री : सुग्राम नामक नगर में सुन्दर नामक एक श्रेष्ठी था। वह बड़ा धर्मी और मुसाफिर आदि लोगों को भोजन, वस्त्र, निवासस्थान आदि देकर उन पर भारी उपकार किया करता था। उसके पड़ोस में एक वृद्धा ब्राह्मणी रहती थी, वह श्रेष्ठी की नित्य निंदा किया करती, और कहती कि, 'मुसाफिर लोग विदेश में मर जाते हैं, उनकी धरोहर आदि मिलने के लोभ से यह (श्रेष्ठी) अपनी सच्चाई बताता है आदि।' एक समय क्षुधा-तृषा से पीड़ित एक कापटिक (भिक्षुक) आया। अपने घर में न होने के कारण उसने (श्रेष्ठी ने) ग्वालिन के पाससे छाश मंगाकर उसे पिलायी, जिससे वह मर गया।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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