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________________ __12 श्राद्धविधि प्रकरणम् को संतोष देने के उद्देश से पुनः कहा कि 'अपने स्थान पर पहुंचने पर इसके संपूर्ण मनोरथ पूर्ण करूंगा, अभी यहां तो वस्त्रादिक भी कहां से मिल सकते हैं?' खेदपूर्वक गांगलि ऋषि ने कहा कि 'जन्म दरिद्री की तरह मुझ से पुत्री को कन्यादान भी नहीं दिया जा सकता, मुझे धिक्कार है' यह कहते हुए ऋषि की आंखों से दुःख के आंसू गिरने लगे। इतने में ही जलवृष्टि की तरह एक पास के आम्रवृक्ष पर से दिव्यवस्त्र, अलंकार आदि गिरकर ढेर लग गया। यह देख सबने आश्चर्यचकित हो मन में निश्चय किया कि 'इस कन्या का भाग्य उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है। मेघ वृष्टि के समान वृक्ष पर से फल तो गिरते हैं पर वस्त्रालंकार गिरते कभी नहीं देखा। वास्तव में पुण्य का प्रभाव अद्भुत है। पुण्यैः सम्भाव्यते पुंसामसम्भाव्यमपि क्षिती। तेरुर्मेरुसमाः शैलाः किं न रामस्य वारिधौ! ।।१।। इस लोक में पुण्य से क्या संभव नहीं? अर्थात् सब कुछ संभव है। देखो, रामचन्द्र के पुण्य से मेरुपर्वत के समान शिलाएं भी सागर पर तैरती रही थीं। तदनन्तर राजा मृगध्वज गांगलि ऋषि तथा नववधू कमलमाला के साथ आनन्ददायक श्री आदिनाथ भगवान के मंदिर में गया और 'हे प्रभो! आपके पवित्र दर्शन पुनः शीघ्र मिले व शिला पर खुदी हुई मूर्ति के सदृश आपकी मूर्ति मेरे चकित चित्त में सर्वदा स्थित रहे।' यह कह अपनी स्त्री कमलमाला सहित भगवन् को वन्दनाकर मंदिर के बाहर आया तथा ऋषि से मार्ग पूछा। ऋषि ने उत्तर दिया कि 'मैं मार्ग आदि नहीं जानता हूँ। तब राजा बोला कि 'तो आपको मेरे नाम इत्यादि कैसे ज्ञात हुए?' ऋषि बोले-'हे राजन्! सुन। एक वक्त मैंने मेरी इस नवयौवना कन्या को आनन्द से देखकर विचार किया कि इसके योग्य वर कौन मिलेगा? इतने में आम्रवृक्ष पर बैठे हुए एक तोते ने मुझसे कहा-'हे गांगलि ऋषि! वृथा चिंता न कर। ऋतुध्वज राजा के पुत्र मृगध्वज राजा को मैं आज ही इस जिन-मंदिर में बुला लाता हूँ। जिस प्रकार कल्पवल्ली,कल्पवृक्ष को वरने योग्य है उसी प्रकार तेरी यह कन्याजगत् में श्रेष्ठ राजा मृगध्वज को वरने के योग्य है, इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं।' यह कहकर तोता उड़ गया और कुछ देर के बाद ही हे राजन्! आप आये और पश्चात् धरोहर वस्तु जिस तरह वापस देते हैं वैसे मैंने आनन्द से यह कन्या आपको दी। इससे अधिक मैं कुछ नहीं जानता। यह कहकर ऋषि चुप हो गये। राजा ने विचार किया कि 'अब क्या करना चाहिए?' इतने में ही अवसरज्ञाता पुरुष की तरह तोते ने शीघ्र आकर कहा कि, 'हे राजन! आ, आ! मैं तुझे मार्ग दिखाता हूँ। यद्यपि मैं जाति का एक क्षुद्र पक्षी हूँ तथापि मैं आश्रित (मेरे विश्वास पर रहे हुए) जन की उपेक्षा नहीं करता। अपने ऊपर विश्वास रखकर बैठा हुआ कोई साधारण जीव हो उसकी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। तो फिर बड़े पुरुष
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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