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श्राद्धविधि प्रकरणम्
11 समान अतिथि तो भाग्य से ही मिलते हैं।'
गांगलि ऋषिके ये वचन सुनकर राजा मृगध्वज मन में विचार करने लगा कि 'ये ऋषि कौन है? मुझे आग्रह पूर्वक किस कारण बुलाते हैं? और परिचय न होते हुए भी यह मेरा नाम ठाम कैसे जानते हैं? इत्यादि विचारों से आश्चर्ययुक्त होकर वह ऋषि के साथ उनके आश्रम पर गया। ठीक है सत्पुरुष किसीकी प्रार्थना का अनादर नहीं करते।
ऋषि ने महाप्रतापी मृगध्वज राजा का अच्छी तरह अतिथि सत्कार किया। वास्तव में ऐसे तपस्वी तो जो काम हाथ में ले लेते हैं उसमें यशस्वी ही होते हैं। तत्पश्चात् बुद्धिशाली गांगलि ऋषि ने राजा से कहा कि-'हे राजन्! आपके आगमन से हम कृतार्थ हुए, इसलिए हमारे कुल में अलंकार के समान,जगत् के नेत्रों को वश करने के लिए साक्षात् कामणरूप, हमारे जीवन के प्रत्यक्ष प्राणरूप, कल्पवृक्ष के फूलों की माला के समान कमल-माला नामक मेरी कन्या आप के ही योग्य है, आप उसका पाणिग्रहणकर हमको उपकृत करो।' ___'मन भाती बात ही वैद्य ने बतायी' ऐसा ही अवसर हुआ। मन में तो राजा को स्वीकार ही थी, तो भी ऋषि ने जब बहुत ही आग्रह किया तब राजा ने यह बात स्वीकार की, सत्पुरुषों की यही रीति है।
पश्चात् ऋषि ने अपनी नवयौवन-सम्पन्न कन्या का राजा के साथ विवाह किया। शुभ कार्य में विलम्ब कैसा? जिसके शरीर पर वल्कल वस्त्र के सिवाय कोई अलंकार नहीं था तो भी राजा मृगध्वज ऋषिकन्या कमलमाला को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। क्यों न हो? राजहंस की प्रीति कमलमाला (कमलों की पंक्ति) पर होनी ही चाहिए।
अंत में ऋषि ने कर मोचन के समय जमाई (राजा) को पुत्र संतति-दायक एक मंत्र दिया। ऋषियों के पास और कौनसी वस्तु देने लायक है? उस समय आनन्द पायी हुई तापसिनियों के धवल-गीतों से वन गूंज उठा। गांगलि ऋषि ने अपनी तथा वर की योग्यातानुसार सर्व विधि स्वयं करायी, इससे भी बहुत शोभा हुई।
विवाह के पश्चात् राजा ने ऋषि से कहा कि 'मैं राज्यव्यवस्था किये बिना अचानक इधर आ गया हूँ' ऋषि ने कहा 'तो शीघ्र जाने की तैयारी करो'। हमारे समान दिगम्बर की तैयारी में क्या विलम्ब? परन्तु हे राजन्! तेरा दिव्य वेष और अपना वल्कल-वेष देख-देखकर यह कमलमाला महान पुरुषों को भी दुःख पैदा कर देती है। साथ ही इसने आजतक आश्रम में सदा वृक्षों को जल पिलाया है वजन्म से अभी तक केवल तापसी-स्त्रियों के रीति-रिवाज देखती आयी है। इसलिए जन्म से भोली है, परन्तु तुझमें पूर्ण अनुरागिणी है। राजन्! इस मेरी कन्या का सोतों से (अन्य रानियों से) किसी प्रकार का अपमान न होना चाहिए।'
राजा ने कहा 'अन्य रानियों से इसकी पराभूति (विशेषऋद्धि) होगी, पराभूति (तिरस्कार) कदापि न होगा। इससे आपके वचनों में लेशमात्र भी कमी न होगी।'
इतना कहकर चतुर राजा ने तापसीजनों को प्रसन्न करके तापसी-स्त्रियों आदि