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श्राद्धविधि प्रकरणम्
215 जो मनुष्य कुछ भी संग्रह नही करते और जितना धन मिले उतना विषयसुख में ही खर्च करते हैं वे क्षणिक विषयसुख में आसक्त कहे जाते हैं। जो मनुष्य अपने बापदादाओं का उपार्जित द्रव्य अन्याय से खाते हैं, वे बीज (मूल) भोजी कहे जाते हैं, और जो मनुष्य अपने जीव, कुटुम्ब सेवकवर्गको दुःख देकर द्रव्यसंग्रह करते हैं और योग्यरीति से जितना खर्चना चाहिए उतना भी खर्च न करें वे कृपण कहलाते हैं। जिसमें क्षणिक विषयसुख में आसक्त और मूलभोजी इन दोनों का द्रव्य नष्ट हो जाता है, इस कारण उनसे धर्म और काम का सेवन नहीं होता। इसलिए इन दोनों जनों का कल्याण नहीं होता। कृपण का किया हुआ द्रव्य का संग्रह दूसरे का कहलाता है। राजा, भूमि, चोर आदि लोग कृपण के धन के मालिक होते हैं, इससे उसका धन धर्म अथवा काम के उपयोग में नहीं आता। कहा है कि
दायादाः स्पृहयन्ति तस्करगणा मुष्णन्ति भूमिभुजो, गृह्णन्ति च्छलमाकलय्य हुतभुग भस्मीकरोति क्षणात्। अम्भः प्लावयते क्षितौ विनिहितं यक्षा हरन्ते हठाद्, दुर्वृत्तास्तनया नयन्ति निधनं धिग् बहधीनं धनम् ॥१॥ जिस धन को मनुष्य चाहते हैं, उस धन को चोर लूटें, किसी छलभेद से राजा हरण कर लें, क्षणमात्र में अग्निभस्म कर दे, जल डूबा दे, भूमि में गाड़ा हो तो यक्ष हरण करे, पुत्र दुराचारी हो तो बलात्कार से कुमार्ग में उड़ा दें, ऐसे अनेकों के अधिकार में रहे हुए धन को धिक्कार है।
अपने पुत्र को लाड़ लड़ानेवाले पति को देखकर जैसे दुराचारिणी स्त्री हंसती है, वैसे ही मृत्यु शरीर की रक्षा करनेवाले को तथा पृथ्वी धन की रक्षा करनेवाले को देखकर हंसती है। कीड़ियों का एकत्रित किया हुआ धान्य, मधुमक्खियों का एकत्रित किया हुआ मधु और कृपण का उर्पाजन किया हुआ धन ये तीनों वस्तुएं दूसरों के ही उपभोग में आती हैं। इसलिए धर्म अर्थ और काम को बाधा उत्पन्न करना यह बात गृहस्थ को उचित नहीं। कदाचित् पूर्वकर्म के योग से ऐसा हो तो भी उत्तरोत्तर बाधा होने पर भी शेष का रक्षण करना चाहिए। यथा___ काम को बाधा हो तो भी धर्म और अर्थ की रक्षा करना। कारण कि धर्म और अर्थ की अच्छी तरह रक्षा करने से ही काम (विषयसुख) सुख से मिल सकता है। वैसे ही अर्थ और काम इन दोनों को बाधा हो तथापि सर्वप्रकार से धर्म की रक्षा करनी चाहिए। कारण कि अर्थ व काम का मूल धर्म है। कहा है कि चाहे नरेटी (फूटे पात्र) में भिक्षा मांगकर अपनी आजीविका चलाता हो, तो भी मनुष्य जो अपने धर्म को बाधा न उपजावे तो उसे ऐसा समझना चाहिए कि, 'मैं बड़ा धनवान हूं।' कारण कि, धर्म ही सत्पुरुषों का धन है। जो मनुष्य मनुष्यभव पाकर धर्म, अर्थ, काम इन तीनों का साधन न करे उसकी आयुष्य पशु की तरह वृथा है। इन तीनों में भी धर्म श्रेष्ठ है। कारण कि. उसके बिना अर्थ और काम उत्पन्न नहीं होते।