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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 205 उनमें रहना आदि सर्व त्याग करना । कारण कि, किसीको ताप उत्पन्न करने से अपनी सुखादि ऋद्धि बढ़ती नहीं है। कहा है कि शाठ्येन मित्रं कपटेन धर्मं, परोपतापेन समृद्धिभावम् । सुखेन विद्यां प्ररुषेण नारीं, वाञ्छन्ति ये व्यक्तमपण्डितास्ते ।।१।। जो मनुष्य मूर्खता से मित्र को, कपट से धर्म को, सुख से विद्या को और क्रूरपने स्त्री को वश करना तथा दूसरे को ताप उपजाकर स्वयं सुखी होने की इच्छा करते हैं, वे मूर्ख हैं। विवेकीपुरुष को जैसे लोग अपने ऊपर प्रीति करते हैं, वैसे ही अपने को भी वर्तन करना चाहिए। कहा है कि जितेन्द्रियत्वं विनयस्य कारणं, गुणप्रकर्षो विनयादवाप्यते। गुणप्रकर्षेण जनोऽनुरज्यते, जनानुरागप्रभवा हि सम्पदः ||२|| इंद्रियां जीतने से विनयगुण उत्पन्न होता है, विनय से सद्गुणों की प्राप्ति होती है, सद्गुणों से लोगों के मन में प्रीति उत्पन्न होती है, और लोगों के अनुराग से सर्व संपत्ति होती है। विवेकीपुरुष को अपने धन की हानि, वृद्धि अथवा किया हुआ संग्रह आदि बात किसीके संमुख प्रकट न करना, कहा है कि – चतुरपुरुष को स्त्री, आहार, पुण्य, धन, गुण, दुराचार, मर्म और मंत्र ये आठ वस्तुएं गुप्त रखना चाहिए। कोई अपरिचित व्यक्ति उपरोक्त आठ वस्तुओं का स्वरूप पूछे तो, असत्य न बोलना, परन्तु ऐसा कहना कि, 'ऐसे प्रश्नों का क्या प्रयोजन?' इत्यादि प्रत्युत्तर भाषासमिति से देना । राजा, गुरु आदि बड़े पुरुष उपरोक्त आठ बातें पूछें तो परमार्थ से यथावत् कह देना । कहा है कि सत्य वक्तव्य : सत्यं मित्रैः प्रियं स्त्रीभिरलीकमधुरं द्विषा । अनुकूलं च सत्यंच, क्तव्यं स्वामिना सह ||१|| मित्रों के साथ सत्यवचन बोलना, स्त्री के साथ मधुरवचन बोलना, शत्रु के साथ असत्य परंतु मधुरवचन बोलना और अपने स्वामी के साथ उनको अनुकूल हो ऐसा सत्यवचन बोलना। सत्यवचन मनुष्य को बड़ा आधार है। कारण कि, सत्यवचन से ही विश्वास आदि उत्पन्न होता है। इस विषय पर एक दृष्टांत सुनते हैं— दिल्लीनगर में एक साधु महणसिंह नामक वणिक् रहता था। उसकी सत्यवादिता की कीर्ति सर्वत्र प्रसारित थी। बादशाह ने एक दिन परीक्षा के हेतु से उसे पूछा कि, 'तेरे पास कितना धन है?' उसने उत्तर दिया, 'मैं बही में लेखा देखकर कहूंगा।' ऐसा कह उसने सम्यग् रीति से सब लेखा देखकर कहा कि, 'मेरे पास अनुमानतः चौरासी लाख टंक होंगे।' मैंने थोड़ा ही द्रव्य सुना था व इसने तो बहुत कहा। यह विचारकर बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ और उसे अपना भंडारी नियुक्त किया। इसी तरह खंभातनगर में प्राणान्त संकट आने पर भी सत्यवचन न छोड़े ऐसा श्री
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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