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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 185 करना चाहिए। 'पूर्व में मैंने ही इसे सुलगाया है, अतः मैं इसकी अवहेलना करूं, तो भी यह मुझे नहीं जलायेगा।' ऐसे अयोग्य विचार से जो मनुष्य अपनी अंगुली दीपक पर धरे, तो वह तत्काल जला देता है, वैसे ही 'मैंने ही इसे हिम्मत से राजपदवी पर पहुंचाया है, अतः चाहे कुछ भी व्यवहार करूं, पर यह मुझ पर रुष्ट नहीं होगा।' ऐसे व्यर्थविचार से जो कोई मनुष्य राजा को अंगुली लगावे तो वह रुष्ट हुए बिना नहीं रहता। अतएव इस प्रकार कार्य करना कि वह रुष्ट न हो। कोई पुरुष राजा को बहुत मान्य हो तो भी वह इस बात का गर्वन करे। कारण कि, 'गर्व विनाश का मूल है' इस विषय पर सुनते हैं कि दिल्लीनगर में बादशाह के प्रधानमन्त्री को बड़ा गर्व हुआ। वह मन में समझने लगा कि, 'राज्य मेरे आधार पर ही टिक रहा है।' एक समय किसी बड़े मनुष्य के सम्मुख उसने वैसी गर्व की बात प्रकट भी की। यह बात बादशाह के कान में पहुंचते ही उसने प्रधानमन्त्री को पदच्युत कर दिया और उसके स्थान पर हाथ में रांपी रखनेवाले एक मोचीको नियुक्त किया। यह कामकाज के कागजों पर सही की निशानी के रूप में रांपी लिखता था। उसका वंश अभी भी दिल्ली में मान्य है। - इस प्रकार राजादिक प्रसन्न हो तो ऐश्वर्य आदि का लाभ होना अशक्य नहीं। कहा है कि गन्ने का खेत, समुद्र, योनिपोषण और राजा का प्रसाद ये तत्काल दरिद्रता दूर करते हैं। सुख की इच्छा करनेवाले अभिमानी लोग राजा आदि की सेवा की भले ही निन्दा करें; परन्तु राजसेवा किये बिना स्वजन का उद्धार और शत्रु का संहार नहीं हो सकता। कुमारपाल भाग गया तब वोसिरब्राह्मण ने उसे सहायता दी, जिससे उसने प्रसन्न हो अवसर पाकर उस ब्राह्मण को लाटदेश का राज्य दिया। देवराज नामक कोई राजपुत्र जितशत्रु राजा के यहां पहरेदार का काम करता था। उसने एक समय सर्प का उपद्रव दूर किया, जिससे प्रसन्न हो राजा जितशत्रु ने देवराज को अपना राज्य दे स्वयं दीक्षा लेकर सिद्धि प्राप्त की। मन्त्री, श्रेष्ठी, सेनापति आदि के कार्यों का भी राजसेवा में समावेश हो जाता है। ये मन्त्री आदि के कार्य बड़े पापमय हैं, और परिणाम में कटु हैं। इसलिए वास्तव में श्रावक के लिए वर्जित हैं। कहा है कि जिस मनुष्य को जिस अधिकार पर रखते हैं वह उसमें चोरी किये बिना नहीं रहता। देखो, क्या धोबी अपने पहनने के वस्त्र मोल लेकर पहिनता है? मन में अधिकाधिक चिन्ता उत्पन्न करनेवाले अधिकार कारागृह के समान है। राजा के अधिकारियों को प्रथम नहीं परन्तु परिणाम में बन्धन होता है। यदि सुश्रावक राजाओं का काम करना सर्वथा न त्याग सके, तो भी गुप्तिपाल', कोतवाल, सीमापाल आदि के अधिकार तो बहुत ही पापमय व निर्दय कृत्य हैं, इसलिए श्रद्धावन्त श्रावक के लिए सर्वथा त्याज्य हैं। कहा है कि–पशुपालन, देवस्थान, १. जेलर, कारागृह का अधिकारी।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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