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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 183 सेवा : • १ राजा की, २ राजा के अमलदार लोगों की, ३ श्रेष्ठी की और ४ दूसरे लोगों की मिलकर चार प्रकार की सेवा है। राजादिक की सेवा रात-दिन परवशता आदि भोगनी पड़ने से ऐसे वैसे मनुष्य से नहीं हो सकती है। कहा है कि मौनान्मूकः प्रवचनपटुर्वातिको जल्पको वा, धृष्टः पार्थे भवति च तथा दूरतश्चाप्रगल्भः। क्षान्त्या भीरुयहि न सहते प्रायशो नाभिजातः सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः ।।१।। जो सेवक कुछ न बोले तो गूंगा कहलाये, जो स्पष्ट बोले तो बकवादी, जो पास बैठा रहे तो ढीठ, जो दूर बैठे तो बुद्धिहीन, स्वामी कहे वह सर्व सहन करे तो कायर और जो न सहन करे तो कुलहीन कहलाता है, इसलिए योगीजन भी न जान सकते ऐसा सेवाधर्म महान् कठिन है। जो अपनी उन्नति होने के निमित्त नीचा सिर नमावे, अपनी आजीविका के निमित्त प्राण तक देने को तैयार हो जाय, और सुख प्राप्ति के हेतु दुःखी हो, ऐसे सेवक से बढ़कर दूसरा कौन मूर्ख होगा? दूसरे की सेवा करना श्वानवृत्ति के समान है, ऐसा कहनेवाले लोगों ने कदाचित् बराबर विचार नहीं किया, कारण कि, श्वान तो स्वामी की खुशामद पूंछ से करता है, परन्तु सेवक तो सिर नमा-नमाकर करता है, इसलिए सेवक की वत्ति श्वान की अपेक्षा भी नीच है। इतने पर भी अन्य किसी रीति से निर्वाह न हो तो सेवा करके भी मनुष्य को अपना निर्वाह करना। कहा है कि श्रीमंत हो उसको व्यापार करना, अल्प धनवान हो उसको खेती करना, और जब सब उद्यम नष्ट हो जाये, तब अन्त में सेवा करना। समझदार, उपकार का ज्ञाता तथा जिसमें ऐसे ही अन्य गुण हो, उस स्वामी की सेवा करना। कहा है कि अकर्णदुर्बलः शूरः, कृतज्ञः सात्त्विको गुणी। वदान्यो गुणरागी च, प्रभुः पुण्यैरवाप्यते ॥१।। क्रूरं व्यसनिनं लुब्धमप्रगल्भं सदामयम्। मूर्खमन्यायकर्तारं, नाधिपत्ये नियोजयेत् ।।२।। जो कान का कच्चा न हो, तथा शूरवीर, कृतज्ञ, अपना सत्त्व रखनेवाला, गुणी, दाता, गुणग्राही ऐसा स्वामी सेवक को भाग्य से ही मिलता है। क्रूर, व्यसनी, लोभी, नीच, जीर्णरोगी, मूर्ख व अन्यायी ऐसे मनुष्य को कदापि अपना अधिपति न करना। जो मनुष्य अविवेकी राजा द्वारा स्वयं ऋद्धिवन्त होने की इच्छा करता है, वह मानो ऋद्धिप्राप्ति के लिए मिट्टी के घोड़े से सो योजन जाने का विचार करता है, अथवा वह निरर्थक है। कामंदकीयनीतिशास्त्र में भी कहा है कि वृद्धोपसेवी नृपतिः, सतां भवति सम्मतः। प्रेर्यमाणोऽप्यसवृत्तै कार्येषु प्रवर्तते ।।१।।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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