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________________ 175 श्राद्धविधि प्रकरणम् किया हो वह श्रावक सूर्योदय होने के अनन्तर अपने घर जाकर पश्चात् निमंत्रण करे। जिस श्रावक को प्रतिक्रमण और वन्दना का योग न हो, उसने भी वन्दनादि के अवसर पर ही निमंत्रणा करना चाहिए। मुख्यतः तो दूसरी बार देवपूजाकर तथा भगवन् के संमुख नैवेद्य रखकर पश्चात् उपाश्रय को जाना, तथा साधु मुनिराज को निमंत्रणा करना। श्राद्ध-दिन-कृत्य आदि ग्रंथों में ऐसा ही कहा है। तत्पश्चात् अवसरानुसार रोग की चिकित्सा करावे, औषध आदि दे, उचित व पथ्य आहार वहोरावे, अथवा साधुमुनिराज की अन्य जो अपेक्षा हो वह पूर्ण करे। कहा है कि दाणं आहाराई, ओसहवत्थाई जस्स जं जोग्गं। णाणाईण गुणाणं, उवट्ठभणहेउ साहूणं ॥१॥ साधु मुनिराज के ज्ञानादि गुण को अवलम्बन देनेवाला चतुर्विध आहार, औषध, वस्त्र आदि जो मुनिराज के योग्य हो वह उनको देना चाहिए। . साधु मुनिराज अपने घर बहोरने आवें,तब जो-जो योग्य वस्तु हो, वे सर्व उनको वहोराना, और सर्ववस्तुओं का नाम लेकर नित्य कहना कि, 'महाराज! अमुक-अमुक वस्तु की जोगवाइ है' ऐसा न कहने से पूर्व की की हुई निमंत्रणा निष्फल होती है। नाम देकर सर्व वस्तुएं कहने पर भी कदाचित् मुनिराज न वहोरे, तो भी कहनेवाले श्रावक को पुण्यलाभ तो होता ही है। कहा है कि मनसापि भवेत्पुण्यं, वचसा च विशेषतः। कर्तव्येनापि तद्योगे, स्वर्दुमोऽभूत्फलेग्रहिः ॥१॥ साधु मुनिराज को वहोराने की बात का मन में चिन्तन मात्र करने से भी पुण्य होता है, जो वचन से वहोराने की बात कहे तो विशेष पुण्य होता है; और जो वैसा योग बन जाये तो मानो कल्पवृक्ष ही मिल गया ऐसा समझना चाहिए। जिस वस्तु का योग हो, और जो श्रावक उस वस्तु का नाम लेकर न कहे तो वस्तु प्रत्यक्ष दीखने पर भी साधु नहीं वहोरते, इससे बड़ी हानि होती है। निमंत्रणा करने के बाद जो कदाचित् साधु मुनिराज अपने घर न आवें, तो भी निमंत्रणा करनेवाले को पुण्यलाभ तो होता ही है तथा विशेषभाव होने पर अधिक पुण्य होता है। जैसे वैशालीनगरी में श्रीवीर भगवान् छद्मस्थ अवस्था में चौमासी तपकरते थे तब जीरणश्रेष्ठी नित्य भगवान को पारणे केनिमित्त निमंत्रण करने आते। चौमासी तप पूर्ण हुआ उस दिन जीरणश्रेष्ठी ने समझा कि, 'आज तो स्वामी निश्चय पारणा करेंगे।' . यह विचारकर वह बड़े आग्रहपूर्वक निमंत्रणाकर अपने घर गया, और मैं धन्य हूं। आज स्वामी मेरे घर पारणा करेंगे।' इत्यादि भावनाओं से उसने अच्युत देवलोक का आयुष्य बांधा। पारणे के दिन मिथ्यादृष्टि अभिनव श्रेष्ठी ने दासी द्वारा किसी भिक्षुक को भिक्षा देने के समान भगवंत को कुल्माष (उड़द के बाकुले) दिलवाये। भगवंत ने १. यह कथन उस समय प्रातः प्रतिक्रमण साधु के साथ होने का सूचन कर रहा है।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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