SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 165 वैसा करने से धर्मस्थान बराबर देखकर उस स्थान में उस द्रव्य का व्यय किया जा सकता है। सात क्षेत्र में जो क्षेत्र गिरा हुआ हो, उसे आश्रय देने में विशेष लाभ दृष्टि आता है। कोई श्रावक ही बुरी दशा में हो, और उसे जो उस द्रव्य से सहायता की जाये, तो आलम्बन मिलने से वह श्रावक धनवान् होकर सातों क्षेत्रों की वृद्धि करे, यह संभव है। लौकिक में भी कहा है कि ➖➖➖➖➖ दरिद्रं भर राजेन्द्र !, मा समृद्धं कदाचन । व्याधितस्यौषधं पथ्यं नीरोगस्य किमौषधम् ? ॥१॥ हे राजेन्द्र ! तू दरिद्र मनुष्य का पोषण कर, पर धनवान् का मत कर। कारण कि, रोगी मनुष्य को ही औषधि देना हितकारी है, निरोगी मनुष्य को औषधि देने से क्या लाभ होगा? इसीलिए प्रभावना, संघ की पहिरावणी, द्रव्ययुक्त मोदक और ल्हाणी आदि वस्तु साधर्मिकों को देना हो, तब दरिद्री साधर्मिक को उत्तम से उत्तम वस्तु हो वही देना योग्य है, ऐसा न करने से धर्म की अवज्ञा आदि करने का दोष आता है। योग हो तो धनवान् की अपेक्षा दरिद्र साधर्मिक को अधिक देना, परन्तु योग न हो तो सभीको समान देना । सुनते हैं कि, यमुनापुर में जिनदास ठक्कुर ने धनिक साधर्मी को दिये हुये समकित मोदक में एक-एक स्वर्णमुद्रा रखी थी, और दरिद्री साधर्मी को दिये हुए मोदक में दो-दो स्वर्णमुद्राएं रखीं थीं । अस्तु, धर्मखाते व्यय करना स्वीकार किया हुआ द्रव्य उसी खाते में व्यय करना चाहिए। i , मुख्यतः तो पिता आदि लोगों ने पुत्रादि के पीछे अथवा पुत्रादि ने पिता आदि के पीछे जो कुछ पुण्यमार्ग में व्यय करना हो, वह प्रथम से ही सबके समक्ष करना, कारण कि, कौन जाने किसकी कहां व किस प्रकार मृत्यु होगी? इसलिए प्रथम निश्चय करके जितना माना हो, उतना अवसर पर अलग ही व्यय करना, तथा स्वयं किये हुए साधर्मिक वात्सल्य आदि में न गिनना । क्योंकि उससे धर्मस्थान में व्यर्थ दोष आता है। बहुत से लोग यात्रा के निमित्त 'इतना द्रव्य खर्च करूंगा' इस तरह स्वीकार करके स्वीकृत रकम में से ही गाड़ी भाड़ा, खाना-पीना आदि द्रव्य भी खर्च करके उसीमें गिनते हैं, उन मूर्ख लोगों को ज्ञान नहीं कि क्या गति होगी? यात्रा के निमित्त जितना द्रव्य माना हो, उतना देव, गुरु आदि का द्रव्य हो गया । वह द्रव्य जो अपने उपभोग में लिया जाये तो देवादिद्रव्य भक्षण करने का दोष क्यों न लगे ? " इस प्रकार जानते अथवा अजानते जो किसी प्रसंग पर देवादिद्रव्य का उपभोग हो गया हो, उसकी आलोचना समान (जितने द्रव्य का उपभोग अनुमान से ध्यान में आता हो, उसी प्रमाण में) स्वद्रव्य देवादिद्रव्य में डालना चाहिए । मृत्यु समय समीप आने पर तो यह आलोचना अवश्य करनी चाहिए, विवेकी मनुष्य को अपनी अल्पशक्ति हो तो धर्म के सात क्षेत्रों में अपनी शक्ति के अनुसार अल्पद्रव्य व्यय करना, परन्तु किसीका ऋण सिर पर न रखना, पाई पाई चुकती कर देना चाहिए, उसमें भी देव, ज्ञान और साधारण इन तीन खातों का ऋण तो बिलकुल ही न रखना। ग्रंथकार ने ही कहा
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy