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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 163 ओढ़ने आदि की वस्तुएं प्रायः ऐसी मिलती थी कि जो सामान्य मनुष्य को भी सुखपूर्वक मिल सकती हैं। कहा है कि-'हे सागर! तू रत्नाकर कहलाता है व उसीसे तू रत्नों से परिपूर्ण है, तथापि मेरे हाथ में मेंढक आया! यह तेरा दोष नहीं बल्कि मेरे पूर्वकर्म का दोष है। पश्चात् श्रेष्ठी ने 'इस पुत्री का एक भी उत्सव न हुआ।' यह विचारकर बड़े आडंबर से उसका लग्न महोत्सव प्रारंभ किया, किन्तु लग्न समीप आते ही उस कन्या की माता अकस्मात् मृत्यु को प्राप्त हुई। जिससे बिलकुल उत्सव न होकर केवल रूढ़ि के अनुसार वर-वधूका हस्तमिलाप किया गया। बड़े धनवान् व उदार श्रेष्ठी के घर उसका विवाह हुआ व श्वसुर आदि सर्वजनों की वह मान्य थी, तो भी पूर्व की तरह नये नये भय, शोक, रोग आदि कारणों से उस कन्या को अपने मनवांछित विषयसुख तथा उत्सव भोगने का योग प्रायः न मिल सका, जिससे वह मन में बहुत उद्विग्न हुई तथा संवेग को प्राप्त हुई। एक दिन उसने केवली भगवंत को इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि, 'पूर्वभव में तूने थोड़ा नकरा देकर मंदिर आदि की बहुतसी वस्तुएं काम में ली व भारी आडंबर दिखाया, उससे जो दुष्कर्म तने उपार्जन किया, उसी का यह फल है।' केवली भगवंत के यह वचन सुनकर वह प्रथम आलोचना व अनंतर दीक्षा ले अनुक्रम से निर्वाण को प्राप्त हो गयी इत्यादि। अतएव उजमणा आदि में रखने के लिए पाटलियां, नारियल, लड्डू आदि वस्तुएं उनका जितना मूल्य हो, अथवा उनके तैयार करने, लाने में जितना द्रव्य लगा हो उससे भी कुछ अधिक रकम देना चाहिए। ऐसा करने से शुद्ध नकरा कहलाता है। गृहमंदिर के पदार्थ का उपयोग कैसे करना? - किसीने अपने नाम से उजमणा किया हो परन्तु अधिक शक्ति न होने से उसकी रीति पूर्ण करने के लिए अन्य कोई मनुष्य कुछ रखे, तो उससे कुछ दोष नहीं होता। अपने गृहमंदिर में भगवान् के संमुख रखे हुए चावल, सुपारी, नैवेद्य आदि वस्तुएं बेचने से उपजी हुई रकम में से पुष्प, भोग (केशर, चंदन आदि वस्तु) अपने गृहमंदिर में न वापरना, और दूसरे जिनमंदिर में भी स्वयं भगवान् पर न चढ़ाना, बल्कि सत्य बात कहकर पूजक लोगों के हाथ से चढ़ाना। जिनमंदिर में पूजक का योग न हो तो सब लोगों को उस वस्तु का स्वरूप स्पष्ट कहकर स्वयं भगवान् पर चढ़ावे। ऐसा न करने से, निज खर्च न करते मुफ्त में लोगों से अपनी प्रशंसा कराने का दोष आता है। गृहमंदिर की नैवेद्य आदि वस्तु माली को देना, परन्तु यह उसके मासिक पगार की रकम में न गिनना। जो प्रथम से ही मासिक पगार के बदले नैवेद्य आदि देने का ठहराव किया हो, तो कुछ भी दोष नहीं। मुख्यतः तो माली को मासिक वेतन पृथक् ही देना चाहिए। गृहमंदिर में भगवान् के संमुख रखे हुए चावल, नैवेद्य आदि वस्तुएं. बड़े जिनमंदिर में रखना, अन्यथा 'गृहमंदिर की वस्तु से ही गृहमंदिर की पूजा की, परन्तु स्व द्रव्य से नहीं की।' ऐसा होकर अनादर, अवज्ञा आदि दोष भी लगता है। ऐसा होना योग्य नहीं। -
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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