________________
162
श्राद्धविधि प्रकरणम् प्रमाणभूत हैं। ऐसा न हो तो, अपने पात्र में रखा हुआ नैवेद्य भगवान् के सन्मुख रखते हैं, इससे वह पात्र भी देवद्रव्य मानना चाहिए। श्रावक को मंदिर खाते की अथवा ज्ञानखाते की घर, दुकान आदि वस्तु भाड़ा देकर भी वापरनी नहीं चाहिए। कारण कि, उससे निश्शूकता (बेदरकारी) आदि दोष होता है। साधारण खाते की वस्तु संघ की अनुमति से वापरनी पड़े तो भी लोक व्यवहार की रीति के अनुसार कम न पड़े इतना भाड़ा देना, और वह भी कही हुई मूद्दत के अंदर स्वयं ही जाकर देना। उसमें जो कभी उस घर की दिवार, पाट आदि पूराने हों, उनके गिर जाने पर पुनः ठीक करवाने पड़े तो जो कुछ खर्च हो, वह भाड़े में से काट लेना,कारण कि ऐसा लोकव्यवहार है; परन्तु जो अपने लिये ही एकाध माला नया बनवाया हो अथवा उस घर में अन्य कोई नया काम बढ़ाया हो तो उसका खर्च भाड़े में से नहीं लिया जा सकता, कारण कि उससे साधारण द्रव्य के उपभोग का दोष आता है। कोई साधर्मिक भाई बुरी अवस्था में हो तो वह संघ की सम्पत्ति से साधारण खाते के घर में बिना भाड़े रह सकता है। वैसे ही अन्यस्थान न मिलने से तीर्थादिक में तथा जिनमंदिर में जो बहत समय रहना पड़े तथा निद्रा आदि लेना पड़े तो भी जितना वापरने में आये, उससे भी अधिक नकरा देना। थोड़ा नकरा देने पर तो प्रकट दोष है ही। इस प्रकार देव, ज्ञान और साधारण इन तीनों खातों की वस्त्र, नारियल, सोने चांदी की पटली,कलश, फूल, पक्वान्न मिठाई आदि वस्तुएं उजमणे में, नंदी में व पुस्तक पूजा में यथोचित नकरा दिये बिना न रखना। 'उजमणा आदि कृत्य अपने नाम से विशेष आडंबर के साथ किये हो तो लोक में प्रशंसा हो', ऐसी इच्छा से थोड़ा नकरा देकर अधिक वस्तु रखना योग्य नहीं। इस विषय पर लक्ष्मीवती का दृष्टान्त कहते हैं किलक्ष्मीवती की कथा :
- लक्ष्मीवती नामक एक श्राविका बहुत धनवान्, धर्मिष्ठ और अपना बड़प्पन चाहनेवाली थी। वह प्रायः थोड़ा नकरा देकर बड़े आडम्बर से विविध प्रकार के उजमणे आदि धर्मकृत्य करती तथा कराया करती थी। वह मन में यह समझती थी कि 'मैं देवद्रव्य की वृद्धि तथा प्रभावना करती हूं।' इस प्रकार श्रावकधर्म का पालनकर मृत्यु के बाद वह स्वर्ग में गयी। किन्तु बुद्धिपूर्वक अपराध के दोष से वहां नीच देवी हुई व वहां से च्यवकर किसी धनाढ्य व पुत्रहीन श्रेष्ठी के यहां मान्य पुत्रीरूप में उत्पन्न हुई। परन्तु जिस समय वह गर्भ में आयी उस समय आकस्मिक परचक्र का बड़ा भय आने से उसकी माता का सीमन्तोत्सव न हुआ। तथाजन्मोत्सव,छट्ठीका जागरिकोत्सव, नामकरण का उत्सव पिता ने आडंबरपूर्वक करने की तैयारी की थी। किन्तु राजा तथा मंत्री आदि बड़े-बड़े लोगों के घर में शोक उत्पन्न होने के कारण वे न हो सके। वैसे ही श्रेष्ठी ने रत्नजड़ित सुवर्ण के बहुत से अलंकार प्रसन्नतापूर्वक बनवाये थे, परन्तु चौरादिक के भय से वह कन्या एक दिन भी न पहन सकी। वह माँ-बाप को तथा अन्य लोगों को भी बड़ी मान्य थी, तथापि पूर्वकर्म के दोष से उसको खाने, पीने, पहनने,