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________________ 157 श्राद्धविधि प्रकरणम् करने लगा, तब पुण्यसार ने कहा, 'भाई! विषाद न कर! इस चिन्तामणि रत्न से तेरी कार्य सिद्धि होगी। तदनंतर दोनों भाई हर्षित हो वापस लौटे, वे एक नौका पर चढ़े रात्रि को पूर्णचन्द्र का उदय हुआ, तब बड़े भाई ने कहा, 'भाई! चिन्तामणि रत्न निकाल, देखना चाहिए कि इस रत्न का तेज अधिक है कि चन्द्रमा का तेज अधिक है?' नौका के किनारे पर बैठे हुए छोटे भाई ने दुर्दैव की प्रेरणा से उक्त रत्न हाथ में लिया तथा क्षणमात्र रत्न ऊपर व क्षणमात्र चंद्रमा ऊपर दृष्टि करते वह रत्न समुद्र में गिर पड़ा। जिससे पुण्यसार केसर्व मनोरथ भंग हो गये। अन्त में दोनों भाई अपने गाँव में आये। एक समय उन दोनों ने ज्ञानी मुनिराज को अपना पूर्वभव पूछा। तो मुनिराज ने कहा-'चंद्रपुर नगर में जिनदत्त और जिनदास नामक परमश्रावक श्रेष्ठी रहते थे। एक समय श्रावकों ने सर्वज्ञानद्रव्य जिनदत्त श्रेष्ठी को व साधारणद्रव्य जिनदास श्रेष्ठीको रक्षण करने के हेतु सौंपा। वे दोनों श्रेष्ठी उसकी अच्छी प्रकार से रक्षा करते थे। एक दिन जिनदत्त श्रेष्ठी ने अपने लिये किसी लेखक से पुस्तक लिखवायी और पास में अन्य द्रव्य न होने से 'यह भी ज्ञान का ही काम है यह विचारकर ज्ञानद्रव्य में से बारह द्रम्म' लेखक को दे दिये। जिनदास श्रेष्ठी ने तो एक दिन विचार किया कि, 'साधारण द्रव्य तो सातक्षेत्र में वपराता है इसलिए श्रावक भी इसे वापर सकता है, और मैं भी श्रावक हं, अतएव में अपने काम में उपयोग करूं तो क्या हरकत है?' यह सोच कुछ आवश्यक कार्य होने से तथा पास में अन्य द्रव्य न होने से उसने साधारण द्रव्य में के बारह द्रम्म गृहकार्य में व्यय किये। यथाक्रम वे दोनों जन मृत्यु को प्राप्त होकर, उस पाप से प्रथम नरक को गये। वेदान्ती ने भी कहा है कि प्राण कंठगत हो जाय, तो भी साधारणद्रव्य की अभिलाषा न करना। अग्नि से जला हुआ भाग ठीक हो जाता है, परन्तु साधारणद्रव्य के भक्षण से जो जला, वह पुनः ठीक नहीं होता। साधारणद्रव्य, दरिद्री का धन, गुरुपत्नी और देवद्रव्य इतनी वस्तुएं भोगनेवाले को तथा ब्रह्महत्या करनेवाले को स्वर्ग में से भी ढकेल देते हैं। नरक में से निकलकर वे दोनों सर्प हुए। वहां से निकल दूसरी नरक में नारकी हुए, वहां से निकल गिद्ध पक्षी हुए, पश्चात् तीसरी नरक में गये। इस तरह एक अथवा दो भव के अन्तर से सातों नरक में गये। तदनन्तर एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइंद्रिय, चौरेंद्रिय और पंचेंद्रिय तथा तिर्यग्योनि में बारह हजार भवकर उनमें अत्यन्त अशातावेदनीय कर्म भोगा, जिससे बहुत कुछ पाप क्षीण हुआ, तब जिनदत्त का जीव कर्मसार व जिनदास का जीव पुण्यसार ऐसे नाम से तुम उत्पन्न हुए, बारह द्रम्म द्रव्य वापरा था इससे तुम दोनों को बारह हजार भव में बहुत दुःख भोगना पड़ा। इस भव में भी बारह-बारह करोड़ स्वर्णमुद्राएं चली गयीं, बारह वक्त बहुतसा उद्यम किया, तो भी एक को तो बिलकुल ही द्रव्यलाभ न हुआ, और दूसरे को द्रव्य मिला था, वह भी चला १. बीस कोडी की एक कांकणी, चार कांकणी का एक पण, और सोलह पण का एक द्रम्म होता
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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