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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 155 सुन पूर्व में देवद्रव्य से आजीविका की उसका प्रायश्चित्त मुनिराज से मांगा। मुनिराज ने कहा कि, 'जितना देवद्रव्य पूर्व भव में तूने व्यवहार में लिया, उससे भी अधिक द्रव्य देवद्रव्य खाते (फंड) में दे, और देवद्रव्य की रक्षा तथा उसकी वृद्धि आदि यथाशक्ति कर, ताकि तेरा दुष्कर्म दूर होगा, तथा परिपूर्ण भोग, ऋद्धि और सुख का लाभ होगा।' यह सुन निष्पुण्यक ने ज्ञानी गुरु के पास नियम लिया कि, 'मैंने पूर्वभव में जितना देवद्रव्य व्यवहार में लिया हो, उससे सहस्रगुणा द्रव्य देवद्रव्य खाते में न दे दूंतब तक अन्न वस्त्र के खर्च के अतिरिक्त द्रव्य का संग्रह न करूंगा और इस नियम के साथ ही साथ उसने शुद्ध श्रावक धर्म भी ग्रहण किया। उस दिन से उसने जो-जो कार्य किया, उन सभी में उसे उत्तरोत्तर द्रव्य लाभ होता गया वज्यों-ज्यों लाभ होता गया त्यों-त्यों वह सिर पर चढ़े देवद्रव्य को उतारता गया। तथा थोड़े ही दिनों में उसने पूर्वभव में वापरी हुई एक सहस्त्र कांकिणी के बदले में दस लक्ष कांकिणी देवद्रव्य खाते में जमा कर दी। देवद्रव्य के ऋण से अनृण होने के अनन्तर बहुत सा द्रव्य उपार्जन कर वह अपने नगर को आया। सर्व बड़े-बड़े श्रेष्ठियों में श्रेष्ठ होने से राजा ने भी उसका मान किया। अब वह अपने बनवाये हुए तथा अन्य भी सर्व जिनमंदिरों की व्यवस्था अपनी सर्वशक्ति से करने लगा,नित्य महान् पूजा तथा प्रभावना करता व देवद्रव्य का अच्छी तरह रक्षण करके युक्तिपूर्वक उसकी वृद्धि करता. ऐसे सत्कर्मों से चिरकाल पुण्योपार्जनकर अन्त में उसने जिननामकर्म बांधा। तत्पश्चात् अवसर पाकर दीक्षा लेकर गीतार्थ होने पर यथायोग्य बहुतसा धर्मोपदेश आदि करने से जिन-भक्तिरूप प्रथम स्थानक की आराधना की, और उससे पूर्वसंचित जिननामकर्मनिकाचित किया तदुपरांत सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देवत्व तथा अनुक्रम से महाविदेह क्षेत्र में अरिहंत की ऋद्धि का उपभोगकर वह सिद्ध हो गया। अब ज्ञानद्रव्य तथा साधारणद्रव्य के विषय में दृष्टान्त कहते हैं भोगपुर नगर में चौबीस करोड़ स्वर्णमुद्राओं का अधिपति धनावह नामक श्रेष्ठी था। उसकी स्त्री का नाम धनवती था। उनके कर्मसार व पुण्यसार नामक युगल (जोड़ले) पैदा हुए, दोनों सुन्दर पुत्र थे। एक दिन धनावह श्रेष्ठी ने किसी ज्योतिषी से पूछा कि, 'मेरे दोनों पुत्र आगे जाकर कैसे निकलेंगे?' ज्योतिषी ने कहा-'कर्मसार जड़स्वभाव का और बहुत ही मंदमति होने से अनेक प्रकार की युक्तियों से बहुत उद्यम करेगा; परन्तु सर्व पैतृकसंपत्ति खोकर बहुत कालतक दुःखी व दरिद्री रहेगा। पुण्यसार भी पैतृक तथा कष्ठोपार्जित निज सर्व द्रव्य बार-बार खो देने से कर्मसार के ही समान दुःखी होगा तथापि यह व्यापारादि कला में बहुत ही चतुर होगा। दोनों पुत्रों को पिछली अवस्था में धन, सुख, संतति आदि की पूर्ण समृद्धि होगी।'.... श्रेष्ठी ने दोनों पुत्रों को सर्व विद्या तथा कला में निपुण उपाध्याय के पास पढ़ने के लिए रखे। पुण्यसार सुखपूर्वक सर्व विद्याएं पढ़ा। परन्तु कर्मसार को तो बहुतसा परिश्रम करने पर भी एक अक्षर तक न आया। अधिक क्या कहा जाय! लिखना पढ़ना
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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