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________________ 154 श्राद्धविधि प्रकरणम् एक दिन चोरों ने ठाकुर के घर पर डाका डाला, तथा निष्पुण्यक को ठाकुर का पुत्र समझ वे उसे बांधकर अपने स्थान को ले गये। उसी दिन दूसरे किसी डाकू सरदार ने डाका डालकर उपरोक्त डाकुओं की पल्ली का समूल नाश कर दिया। तब उन चोरों ने भी निष्पुण्यक को अभागा समझकर निकाल दिया। कहा है कि खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणैः सन्तापितो मस्तके, वाञ्छन् स्थानमनातपं विधिवशाद् बिल्वस्य मूलं गतः। तत्राप्यस्य महाफलेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः, प्रायो गच्छति यत्र दैवहतकस्तत्रैव यान्त्यापदः ।।१।। एक सिरपर गंजवाला मनुष्य सिरपर धूप लगने से बहुत तप गया।और शीतलछाया की इच्छा से दैवयोग से वेलवृक्ष के नीचे जा पहुंचा तो वहां पर भी ऊपर से गिरे हुए एक वेलफल से 'कडाक' शब्द करके उसका सिर फूटा। तात्पर्य यह है कि, भाग्यहीन पुरुष जहां जावे वहां आपत्ति भी उसके साथ ही आती है। इस तरह भिन्न-भिन्न नौसो निन्नानवे स्थलों में, चौर, जल, अग्नि, स्वचक्र, परचक्र, महामारी आदि अनेक उपद्रव होने से निष्पुण्यक को लोगों ने निकाला। तब वह अत्यन्त दुःखी हो एक घने वन में आराधकों को प्रत्यक्ष फलदाता सेलक नामक यक्ष के मंदिर में आया व अपना सर्व दुःख यक्ष से कहकर एकाग्रचित्त से उसकी आराधना करने लगा। उपवास करने से प्रसन्न हो यक्ष ने एक दिन उसे कहा कि, 'प्रतिदिन संध्या के समय मेरे सन्मुख स्वर्णमय एक हजार चंद्रक' धारण करनेवाला मोर नृत्य करेगा, उसके नित्य गिरे हुए पंख तू लेना।' निष्पुण्यक ने यक्ष के इन वचनों से हर्षित हो नित्य नित्य मयूर पंख एकत्र करना शुरू किया। इस तरह करते नौ सौ पंख एकत्रित हुए,शेष सो रह गये। तब दुर्देव की प्रेरणा से उसने विचार किया कि, 'शेष रहे हुए पंखों के लिए अब कितने दिन इस वन में रहना? अतः सर्व पंख मुट्ठी में पकड़कर एकदम ही उखाड़ लेना ठीक है।' इस तरह निश्चयकर उस दिन जब मोर नाचने आया, तब एक मुट्ठी से उसके पंख पकड़ने गया, इतने में ही मोर कौए का रूप करके उड़ गया और पूर्व एकत्रित नौसौ पंख भी चले गये! कहा है कि दैवमुल्लङ्घ्य यत्कार्य, क्रियते फलवन्न तत्। - सरोऽम्भश्चातकेनात्तं, गलरन्ध्रेण गच्छति ।।१।। दैव की मर्यादा का उल्लंघन करके जो कार्य किया जाय, वह सफल नहीं होता। देखो चातक जो सरोवर का जल पीता है वह पेट में न उतरकर गले में रहे हुए छिद्र से बाहर निकल जाता है। अंत में 'धिक्कार है मुझे! कि मैंने व्यर्थ इतनी उतावल की' इस तरह विषाद करते, इधर-उधर भटकते हुए उसने एक ज्ञानी गुरु को देखा। उनको वन्दनाकर अपने पूर्वकर्म का स्वरूप पूछा। ज्ञानी ने भी यथावत् कह सुनाया। जिसे १. मोर के पंखपर जो नेत्राकार चिन्ह होते हैं उन्हें चंद्रक कहते हैं।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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