________________
150
श्राद्धविधि प्रकरणम् कहा है कि
चेइअदव्वविणासे, इसिघाए पवयणस्स उड्डाहे। संजइचउत्थभंगे, मूलग्गी बोहिलाभस्स ।।१।।
चैत्यद्रव्य का भक्षणादिक से नाश करना, चारित्री मुनिराज का घात करना, प्रवचन का उडाह (अवहेलना हो वैसी क्रिया) करना और साध्वी के चतुर्थव्रत का भंग करना इत्यादि कृत्य करनेवाला समकित के लाभरूपी वृक्ष की जड़ में अग्नि डालता है। यहां विनाश शब्द से चैत्यद्रव्य का भक्षण व उपेक्षा समझना। श्रावक दिनकृत्य, दर्शनशुद्धि इत्यादि ग्रंथों में कहा है कि जो मूढ़मति श्रावक चैत्यद्रव्य का अथवा साधारणद्रव्य का भक्षणादिक से विनाश करे, उसे धर्मतत्त्व का ज्ञान नहीं होता, अथवा वह नरकगति का आयुष्य बांधता है। चैत्यद्रव्य प्रसिद्ध है। वैसे ही श्रीमंत श्रावकों ने 'नया मंदिर कराने या पुराने मंदिर का उद्धार करवाने, पुस्तकें लिखवाने, दुर्दशा में आये हुए श्रावकों को सहायता करने इत्यादि साधारण धर्मकृत्य करने के लिए दिया हुआ द्रव्य, साधारणद्रव्य कहलाता है। उसका विनाश करे, व्याज व्यवहार आदि से उपभोग करे तो साधारण द्रव्य का विनाश कहा जाता है। नया (नकद आया हुआ) द्रव्य और मंदिर के काम में लेकर पीछी उखाड़कर रखी हुई ईंटें, लकड़ियां, पत्थर आदि वस्तु ऐसे दो प्रकार के चैत्यद्रव्य का नाश होता है, और जो साधु उसकी उपेक्षा करे तो उसे भी सिद्धान्त में तीर्थंकरादि ने अनन्त संसारी कहा है। मूल और उत्तर भेद से भी दो प्रकार का चैत्यद्रव्य कहा है। उसमें स्तंभ, कुंभी आदि मूलद्रव्य और छप्पर आदि उत्तरद्रव्य है। अथवा स्वपक्ष व परपक्ष इन दो भेदों से भी दो प्रकार का चैत्यद्रव्य जानना। उसमें श्रावकादिक स्वपक्ष और मिथ्यादृष्टि आदि परपक्ष हैं। सर्व सावध से विरत साधु भी चैत्यद्रव्य की उपेक्षा करने से यदि अनंतसंसारी होता है, तो फिर श्रावक हो इसमें तो आश्चर्य ही क्या है? शंकाः त्रिविधत्रिविध सर्वसावध का पच्चक्खाण करनेवाले साधु को चैत्यद्रव्य
की रक्षा करने का अधिकार किस प्रकार आता है? समाधान : 'जो साधु राजा, मंत्री आदि के पास से मांगकर घर दूकान, गांव इत्यादि मंदिर खाते दिलाकर इस दान कर्म से चैत्यद्रव्य में नया फैलाव करे तो उस साधु को दोष लगता है। कारण कि, ऐसे सावध काम करने का साधुको अधिकार नहीं है। परन्तु कोई भद्रक जीव ने धर्मादिक के निमित्त पूर्व में दिया हुआ द्रव्य अथवा दूसरा चैत्यद्रव्य विनष्ट होता हो तो उसका यदि साधु रक्षण करे, तो कोई दोष नहीं। इतना ही नहीं बल्कि ऐसा करने में जिनाज्ञा की सम्यग्रीति से आराधना होने से साधु धर्मको पुष्टि मिलती है। जैसे साधु नया जिनमंदिर न बनवाये, किन्तु पूर्व के बने हुए जिनमंदिर की १. चैत्य के लिए दिये हुए द्रव्य को भी साधारण द्रव्य में गिना है यह चिन्तनीय है। २. वर्तमान में साधु नये-नये तीर्थस्थानों के संस्थापक हो रहे हैं और उनको सहायक होनेवाले
श्रावक धर्म करते हैं या अधर्म इस पर वे अवश्य विचारें।