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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 149 तब बीच में 'जी हां, यह ऐसा ही है' ऐसा शिष्य कहे तो यह एक पृथक् आशातना मानी है, और गुरु से ऊंचे अथवा समान आसन पर बैठना यह दोनों मिलाकर एक ही आशातना मानी है। इस प्रकार गुरु की तैंतीस आशातनाएं हैं। गुरु की त्रिविध आशातना मानते हैं, वे इस प्रकार–१ गुरुको शिष्य के पैर आदि से स्पर्श होवे तो जघन्य आशातना होती है। २ गुरु को शिष्य के खंखार (कफ) थूक आदि का स्पर्श हो तो मध्यम आशातना होती है और ३ गुरु की आज्ञा न पालना, उससे उलटा करना, गुरु की आज्ञा न सुनना तथा कठोर वचन बोलना इत्यादिक से उत्कृष्ट आशातना होती है। स्थापनाचार्य की आशातना तीन प्रकार की है। यथा- १ स्थापनाचार्यजी को इधर उधर फिरावे, अथवा पग आदि लगावे तो जघन्य आशातना होती है, २ भूमि पर रखे अथवा अवज्ञा (तिरस्कार) से पटक दे तो मध्यम आशातना होती है, और ३ खो देवे अथवा तोड़ डाले तो उत्कृष्ट आशातना होती है। ज्ञानोपकरण की तरह रजोहरण, महपत्ति, दांडादांडी आदि दर्शन के व चारित्र के उपकरण की भी आशातना टालना। कारण कि, "नाणाइतिअं" ऐसे वचन से ज्ञानोपकरण की तरह दर्शनोपकरण और चारित्रोपकरण की भी गुरु के स्थान पर स्थापना होती है, इसलिए विधि से वापरने की अपेक्षा अधिक वापरकर उनकी आशातना न करना। श्री महानिशीथसूत्र में कहा है कि अपना आसन, उत्तरासंग, रजोहरण, अथवा दांडा अविधि से वापरने से एक उपवास की आलोचना आती है। इसलिए श्रावकों को भी चरवला, मुहपत्ति आदि उपकरण विधि से वापरना और ठीक अपने-अपने स्थान पर रखना। ऐसा न करने से धर्म की अवज्ञा आदि दोष सिर पर आता है। इन आशातनाओं में उत्सूत्रवचन, अरिहंत अथवा गुरु आदि की अवज्ञा आदि उत्कृष्ट आशातनाएं सावधाचार्य, मरीचि, जमालि, कूलवालक आदि को जैसे अनन्त-संसारी करनेवाली हुई, वैसे ही अनन्त संसार की करनेवाली जानो। कहा है कि उस्सुत्तभासगाणं, बोहिनासो अणंतसंसारो। पाणच्चए वि धीरा, उस्सुत्तं ता न भासंति ।।१।। तित्थयरपवयणसुअं, आयरिअंगणहरं महिड्डी। आसायंतो बहुसो, अणंतसंसारिओ होइ ।।२।। . उत्सूत्रवचन बोलनेवाले के समकित का नाश होता है, और वह अनन्त संसारी होता है। इसलिए धीरपुरुष प्राण त्याग हो जाय तो भी उत्सूत्र वचन नहीं बोलते। तीर्थकर भगवान्, गणधर, प्रवचन, श्रुत आचार्य अथवा अन्य कोई महर्द्धिक साधु आदि की आशातना करनेवाला अनंतसंसारी होता है। देवद्रव्यादि की व्याख्या : इसी तरह देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य, साधारणद्रव्य और वस्त्र पात्रादि गुरुद्रव्य इनका नाश करे, अथवा नाश होता हो तो उपेक्षा आदिकरे.तो भी भारी आशातना लगती है.
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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