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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 147 रखना, ६१ सिर में मुकुटादि पर रखे हुए फूल के तुर्रे, कलंगी आदि न उतारना, ६२ नारियल आदि वस्तु की शर्त करना, ६३ गेंद खेलना, ६४ मा, बाप आदि स्वजनों को जुहार करना, ६५ गाल, बगल (कांख) बजाना आदि भांडचेष्टा करना, ६५ रेकार, तकार आदि तिरस्कार के वचन बोलना,६७ लेना उघाने के लिए धरना देकर बैठना, ६८ किसी के साथ संग्राम करना, ६९ बाल छूटे करना,७० पालखी वालकर बैठना,७१ लकड़ी की पादुकाएं पग में पहनना,७२ स्वेच्छा से पैर लंबे करके बैठना,७३ सुख के लिए सीटी बजाना, ७४ अपना शरीर अथवा शरीर के अवयव धोने आदि से कीचड़ करना, ७५ पग में लगी हुई धूल जिनमंदिर में झाटकना,७६ स्त्री से क्रीड़ा करना,७७ माथे की अथवा वस्त्र आदि की जूएं दिखवाना तथा वहां डालना, ७८ वहां भोजन करना, अथवा दृष्टियुद्ध, बाहुयुद्ध करना, ७९ शरीर के गुप्त अवयव खुले रखना, ८० वैद्यक कर्म करना,८१ क्रय विक्रय आदि करना कराना, ८२ बिस्तर बिछा के सो रहना, ८३ जिनमंदिर में पीने का पानी रखना, वहां पानी पीना अथवा बारह मास पिया जाये इस हेतु मंदिर के हौज में बरसात का पानी लेना,८४ जिनमंदिर में नहाना, धोना इन उत्कृष्ट भेदों से ८४ आशातनाएं हैं। बृहद्भाष्य में तो पांच ही आशातना कही हैं। यथा—१ अवर्ण आशातना, २ अनादर आशातना,३ भोग आशातना, ४ दुःप्रणिधान और ५ अनुचितवृत्ति आशातना; ऐसी जिनमंदिर में पांच आशातना होती हैं। उसमें पालखी वालना, भगवान् के तरफ पीठ करना, बजाना, पग पसारना, तथा जिनप्रतिमा के सन्मुख दुष्ट आसन से बैठना ये सब प्रथम अवर्ण आशातना हैं। कैसे भी वस्त्र आदि पहनकर, किसी भी समय जैसेवैसे शून्यमन से जिनप्रतिमा की पूजा करना, वह दूसरी अनादर आशातना। जिनमंदिर में पान-सुपारी आदि भोग भोगना, यह तीसरी भोगआशातना है। यह आशातना करने से आत्मा के ज्ञानादि गुणों पर आवरण आता है, इसलिए यह आशातना जिनमंदिर में अवश्य त्याज्य है। राग से, द्वेष से अथवा मोह से मन की वृत्ति दूषित हुई हो, तो वह चौथी दुःप्रणिधान आशातना कहलाती है, वह जिनराज के मंदिर में त्यागना चाहिए। लेन देन के निमित्त धरना देना, वाद विवाद करना, रोना कूटना राजकथादि विकथा करना, जिनमंदिर में अपने गाय, बैल आदि बांधना, विविध प्रकार के अन्न पकाना, इत्यादि घर के कार्य तथा किसीको अपशब्द बोलना आदि पांचवी अनुचितवृत्ति आशातना है। अत्यंत विषयासक्त व अविरति देवता भी जिनमंदिर में आशातनाओं को सर्वथा त्याग देते हैं। कहा है कि देवहरयंमि देवा, विसयविसविमोहिआवि न कयावि। अच्छरसाहिपि समं, हासकड्डाइ वि कुणंति ।।१।। कामविषयरूपी विष से लिपटे हुए देवता भी जिनमंदिर में अप्सराओं के साथ हास्य क्रिडादि कभी भी नहीं करते।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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