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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् इस प्रकार प्रथम गाथा में मंगल तथा दूसरी गाथा में ग्रंथ का विषय कहा गया । अब 'विद्या, राज्य व धर्म ये तीन वस्तु योग्य पात्र को ही देना' इस नीति के अनुसार श्रावक-धर्म ग्रहण करने योग्य कौन है? सो कहा जाता है मूलगाथा - ३ सङ्घत्तणस्स जुग्गो, भद्दगपगई विसेसनिउणमई । नयमग्गरई, तह दढनियवयणठिई विणिहि ॥३॥ भावार्थ : ' : १ भद्रप्रकृति, २ विशेष निपुणमति, ३ न्यायमार्गरति तथा ४ दृढ़निजवचनस्थिति; ऐसा पुरुष श्रावकत्व के योग्य है ॥३॥ धर्म के योग्य : इसमें १ भद्रप्रकृति-भद्रस्वभाववाला, किसी भी प्रकार का पक्षपात न रखकर मध्यस्थ रहना आदि गुणों का धारण करनेवाला होने से निष्कारण विवाद न करनेवाला । कहा है कि धर्म के अयोग्य : रत्तो दुट्ठो मूढो पुव्वं वुग्गहिओ अ चत्तारि । एए धम्माणरिहा अरिहो पुण होई मज्झत्थो । १ मिथ्यात्व में प्रेम रखनेवाला, २ धर्म द्वेषी, ३ बिलकुल मूढ़ तथा ४ पूर्व व्युद्ग्राहित अर्थात् सद्गुरु का लाभ होने के पूर्व ही जिसका चित्त किसी मतवादी ने एकांतवाद में असत्य समझाकर दृढ़ कर लिया हो वह, ये चार व्यक्ति धर्म ग्रहण करने के योग्य नहीं, इसलिए जो मध्यस्थ याने किसी मत पर पक्षपात न रखनेवाला हो, उसको धर्म ग्रहण करने के योग्य समझना चाहिए। १ दृष्टिरागी धर्म ग्रहण नहीं कर सकता, यथा-भुवनभानु केवली का जीव पूर्वभव में विश्वसेन नामक राजपुत्र था । वह त्रिदंडी का भक्त था, गुरु ने बहुत परिश्रम से उसे प्रतिबोधित किया और अंगीकार किये हुए समकित में दृढ़ किया, किन्तु पूर्व परिचित त्रिदंडी के वचन से पुनः इसमें दृष्टिराग का उदय हुआ, जिससे पूर्व प्राप्त समकित को खोकर अनन्तकाल तक संसार में भ्रमण करता रहा। २ धर्म का द्वेषी धर्म पाने के योग्य नहीं, यथा-भद्रबाहुस्वामी का भाई वराहमिहिर धर्म-द्वेषी होने के कारण प्रतिबोध पाकर भी संसार में भ्रमण करता रहा। ३ मूढ़ अर्थात् वह जो कि गुरु के वचनों का भावार्थ न समझे। इसके ऊपर एक किसान के लड़के का लोक प्रसिद्ध दृष्टांत है, यथा मूर्ख किसान पुत्र का दृष्टांत t एक किसान का लड़का था, वह इतना जड़बुद्धि था कि सामान्य बात भी नहीं समझ सकता था। एक समय उसकी माता ने उसे शिक्षा दी कि " हे पुत्र ! राज्यसेवा के निमित्त दरबार में विनय करना चाहिए।" उसने पूछा कि -' विनय क्या होता है?' माता
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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