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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 119 ढांकना पश्चात् सर्व श्रावक अपने चंदन धूप आदि सामग्री से तिलककर, हाथ में सुवर्णकंकण पहिनकर, हाथ को धूप देकर तथा ऐसी ही अन्य क्रियाएँ करके पंक्तिबद्ध खड़े रहें और कुसुमांजलि का पाठ बोलें। यथा 'सयवत्तकुंदमालइ-बहुविहकुसुमाई पंचवन्नाई। जिणनाहण्हवणकाले, दिति सुरा कुसुमंजली हिट्ठा ।।१।। ऐसा कहकर भगवान् के मस्तक पर फूल चढ़ाना। गंधायडिअमहुयरमणहरझंकारसद्दसंगीआ। जिणचलणोवरि मुक्का, हरउ तुम्ह कुसुमंजली दुरिअं ॥१॥ इत्यादि पाठ कहना, गाथादिक का पाठ हो जाय, तब प्रत्येक समय भगवान् के चरण ऊपर एक-एक श्रावक को कुसुमांजलि के फूल चढ़ाना। प्रत्येक पुष्पांजलि का पाठ होने पर तिलक, फूल, पत्र, धूप आदि पूजा का विस्तार जानना। पश्चात् ऊंचे व गंभीर स्वर से प्रस्तुत जिन भगवान् की स्नात्र पीठ ऊपर स्थापना करके उनका जन्माभिषेक कलश का पाठ बोलना। पश्चात् घी, सांटे का रस, दूध, दही और सुगन्धित जल मिश्रित पंचामृत से स्नात्र करना। स्नात्र करते बीच में भी धूप देना, तथा स्नात्र चलता हो तब भी जिनबिंब के मस्तक पर पुष्प अवश्य रखना। . वादिवेताल श्री शांतिसूरिजी ने कहा है कि स्नात्र पूरा हो तब तक भगवान् का मस्तक फूल से ढका हुआ रखना, श्रेष्ठ सुगन्धित फूल उस पर इस प्रकार रखना कि, जिससे ऊपर पड़तीजलधारा दृष्टि पर न आवे।स्नात्र चलता हो तब शक्ति के अनुसार एक सरीखा चामर, संगीत, वाजिंत्र आदि आडंबर करना। सर्व लोगों के स्नात्रकर लेने पर शुद्ध जल की धारा देना। उसका पाठ यह है 'अभिषेकतोयधारा, धारेव ध्यानमण्डलाग्रस्य। भवभवनभित्तिभागान्, भूयोऽपि भिनत्तु भागवती ॥१॥ पश्चात् अंगलूछणाकर विलेपन आदि पूजा, पूर्व की अपेक्षा अधिक करना। सर्वजाति के धान्य के पक्वान्न, शाक, घी, गुड़ आदि विगई तथा श्रेष्ठ फल आदि बलि भगवान के संमुख धरना। ज्ञान, दर्शन और चारित्र इन तीनों रत्नों के मालिक ऐसे तीनों लोक के स्वामी भगवान् के संमुख छोटे बड़े के क्रम से प्रथम श्रावकों को तीन पुंज (ढगली) करके उचित स्नात्र पूजादिक करना। पश्चात् श्राविकाओं को भी अनुक्रम से करना। भगवान् के जन्माभिषेक के अवसर पर प्रथम अच्युत इन्द्र भी अपने १. देवता कमल, मोगरे के पुष्प, मालति आदि पांचवर्ण के बहुत सी जाति के फूल की पुष्पांजलि जिन भगवान् को स्नात्र में देते हैं। २. सुगन्धी से आकर्षित भ्रमरों के मनोहर गुंजारवरूप संगीत से युक्त ऐसी भगवान् के चरणों पर रखी हुई पुष्पांजलि तुम्हारा पाप हरण करे। ३. ध्यानरूप मंडल की धारा के समान भगवान के अभिषेक की जलधारा संसाररूपी महल की भीतों को बारम्बार तोड़ डाले। ।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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