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श्राद्धविधि प्रकरणम् वाजिंत्र, १८ गीत, १९ नाटक, २० स्तुति, २१ भंडार की वृद्धि। इन इक्कीस उपचारों से इक्कीस प्रकारी पूजा होती है। सर्व जाति के देवता ऐसी भगवान की इक्कीस प्रकार की प्रसिद्ध पूजा निरंतर करते हैं; परंतु कलिकाल के दोष से कुमति जीवों ने खंडित कर दी है। इस पूजा में अपने को जो वस्तु प्रिय हो, वह वस्तु भगवान् को अर्पण करना, इक्कीस प्रकारी पूजा का यह प्रकरण उमास्वातिवाचकजी ने किया ऐसी प्रसिद्धि है। पूजा कैसे न करनी :
'ईशान कोण में देवमंदिर करना।' ऐसा विवेकविलास में कहा है। वैसे ही विषम आसन पर बैठकर, पग पर पग चढ़ाकर, खड़े पग से बैठकर अथवा बायां पग ऊंचा रखकर पूजा करना नहीं। तथा बायें हाथ से भी पूजा न करना।' पुष्प कैसे चढ़ाना :
सूखे, भूमिपर पड़े हुए, सड़ी हुई पंखुड़ीवाले, नीचलोगों के स्पर्श किये हुए, खराब व बिना खिले हुए, कीड़ी से खाये हुए, बाल से भरे हुए, सड़े हुए, बासी, मकड़ी के जालवाले, दुर्गन्धित, सुगंध रहित,खट्टी गंध के,'मलमूत्र के संपर्क से अपवित्र हुए ऐसे फूल पूजा में न लेना। स्नात्रविधि :
सविस्तार पूजा करने के समय, प्रतिदिन तथा विशेषकर पर्व के दिन तीन, पांच अथवा सात पुष्पांजली चढ़ाकर भगवान को स्नात्र करना। उसकी विधि इस प्रकार है-प्रभातसमय प्रथम निर्माल्य उतारना, प्रक्षालन करना, संक्षेप से पूजा आरती और मंगलदीप करना। पश्चात् स्नात्र आदि सविस्तार अन्य पूजा करना। पूजा के आरंभ में प्रथम भगवान् के संमुख कुंकुमजल से भरा हुआ कलश स्थापन करना। पश्चात्
'मुक्तालङ्कारविकारसारसौम्यत्वकान्तिकमनीयम्।
सहजनिजरूपनिर्जितजगत्त्रयं पातु जिनबिम्बम् ।।१।। यह मंत्र कहकर अलंकार उतारना।
"अवणिअकुसुमाहरणं, पयइपइडिअमणोहरच्छायं। जिणरूवं मज्जणपीढसंठिअं वो सिवं दिसउ ।।१।।
ऐसा कहकर निर्माल्य उतारना। पश्चात् पूर्वोक्त कलश ढोलना और संक्षेप से पूजा करना, तदनंतर धोये हुए व सुगंधित धूप दिये हुए कलशों में स्नात्र योग्य सुगंधित जल भरना और उन सर्वकलशों को एकपंक्ति में स्थापनकर उनके ऊपर शुद्ध, उज्ज्वल वस्त्र १. किसीका दाहिना हाथ कट गया हो तो बायें हाथ की अनामिका अंगुली से पूजा की जा सकती है। २. बडी नीति लघुनीति करते समय पास में रखे हुए। ३. अलंकार के सम्बंध रहित और क्रोधादिक सहित परंतु सारभूत सौम्यकांति से रमणीय और
अपने स्वाभाविक सुंदररूप से जगत्त्रय को जीतनेवाला जिनबिंब तुम्हारी रक्षा करे। ४. फूल तथा आभरण से रहित, परन्तु स्वभावसिद्ध रही हुई मनोहरकांति से शोभित और
स्नात्रपीठ ऊपर रहा हुआ ऐसा जिनबिम्ब तुमको शिवसुख दे।
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