________________
116
श्राद्धविधि प्रकरणम् पांच प्रकारी पूजा होती है। फूल, अक्षत, गंध, दीप, धूप, नैवेद्य, फल व जल इन आठ वस्तुओं से आठ कर्मों का क्षय करनेवाली अष्टप्रकारी पूजा होती है। स्नात्र, अर्चन, वस्त्र, आभूषण, फल, नैवेद्य, दीप, नाटक, गीत, आरती आदि उपचार से सर्वप्रकारी पूजा होती है। इस प्रकार बृहद्भाष्यादि ग्रंथों में कहे हुए पूजा के तीन प्रकार हैं तथा फल, फूल आदि पूजा की सामग्री स्वयंलावे वह प्रथम प्रकार, दूसरे के पास से मंगावे वह दूसरा प्रकार और मन में सर्व सामग्री की कल्पना करना यह तीसरा प्रकार। इस रीती से मन, वचन, काया के योग से करना, कराना तथा अनुमोदना से कहे हुए तीन प्रकार, वैसे ही पुष्प, आमिष (अशनादि प्रधान भोग्य वस्तु), स्तुति और प्रतिपत्ति (भगवान् की आज्ञा पालना) इस रीति से चार प्रकार की पूजा है वह यथाशक्ति करना। ललितविस्तरादिक ग्रंथों में तो पुष्पपूजा, आमिषपूजा, स्तोत्रपूजा और प्रतिपत्तिपूजा इन चारों पूजाओं में उत्तरोत्तर एक से एक पूजा श्रेष्ठ है ऐसा कहा है। आमिषशब्द से श्रेष्ठ अशनादिक भोग्य वस्तु ही लेना। गौड़कोश में कहा है कि
'उत्कोचे पलले न स्त्री, आमिषं भोग्यवस्तुनि' अर्थात्- स्त्रीलिंग नहीं हो ऐसे आमिष शब्द के लांच, मांस और भोग्यवस्तु ऐसे
तीन अर्थ होते हैं। प्रतिपत्ति शब्द का अर्थ 'तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा सर्व प्रकार से पालना' ऐसा कहा है। इस प्रकार आगम में कहे हुए पूजा के चार प्रकार हैं। वैसे ही जिनेन्द्र भगवान् की पूजा द्रव्य से और भाव से इस रीति से दो प्रकार की है। जिसमें फूल, अक्षत आदि द्रव्य से जो पूजा की जाती है वह द्रव्यपूजा और भगवान् की आज्ञा पालना वह भावपूजा है इस तरह कही हुइ दो प्रकार की पूजा वैसे ही फूल चढ़ाना, चन्दन चढ़ाना इत्यादिक उपचार से कही हुई सत्रह प्रकारी पूजा, तथा स्नात्र, विलेपन आदि उपचार से कही हुई इक्कीस प्रकार की पूजा, इन सर्व पूजा के प्रकारों का, अंगपूजा, अग्रपूजा और भावपूजा इन सर्वव्यापक पूजा के तीन
प्रकारों में समावेश हो जाता है। सत्रहप्रकारी पूजा के भेद इस प्रकार हैं१ स्नात्र व विलेपन करना, २ वासपूजा में दो नेत्र चढ़ाना, ३ फूल चढ़ाना, ४ फूल की माला चढ़ाना, ५ वर्णक (गंध विशेष) चढ़ाना, ६ जिनेश्वर भगवान को चूर्ण चढ़ाना,७ मुकुट आदि आभरण चढ़ाना,८ फूलघर करना, ९ फूल का ढेर करना, १० आरती तथा मंगलदीप करना, ११ दीप करना, १२ धूप करना, १३ नैवेद्य करना, १४ उत्तम फल धरना, १५ गायन करना, १६ नाटक करना, १७ वाजिंत्र (बाजे) बजाना। इक्कीस प्रकारी पूजा की विधि भी इस तरह कही है,यथा... इक्कीस प्रकारी पूजा (श्री उमास्वाति कृत पूजा प्रकरण) :
पश्चिमदिशा को मुख करके दातन करना, पूर्वदिशा में मुख करके स्नान करना, १. श्राद्धविधि ग्रंथ की रचना काल तक प्रतिदिन पक्षाल करना ही फरजियात नहीं हुआ था। अतः
जल पूजा आठवें नंबर पर दर्शायी है। उस समय दोनों रीतियाँ प्रचलित थी। ऐसा लगता है।