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________________ अर्थः श्राद्धविधि प्रकरणम् 115 मज्झते पुणरवि वंदिऊण नियमेण कप्पए भुत्तुं। पुण वंदिऊण ताई, पओससमयंमि तो सुअइ ।।२।। प्रातःकाल जब तक श्रावक देव तथा साधुको विधिपूर्वक वन्दन न करे तब तक पानी भी पीना योग्य नहीं, मध्याह्न के समय पुनः वन्दनकर निश्चय से भोजन करना ग्राह्य है, संध्या समय भी पुनः देव तथा साधुको वन्दनकर पश्चात् सो जाना उचित है। _गीत, नाटक आदि जो अग्रपूजा में कहा है वह भावपूजा में भी आता है। वे (गीत, नाटक) महान फल के कारण होने से मुख्यमार्ग से तो उदायनराजा की रानी प्रभावती की तरह स्वयं ही करना। निशीथचूर्णि में कहा है कि प्रभावती रानी स्नानकर, कौतुक मंगलकर, उज्ज्वल वस्त्र पहिनकर यावत् अष्टमी तथा चतुर्दशी को भक्तिराग से स्वयं ही रात्रि में भगवान् के सामने नाटकरूप उपचार करती थी और राजा (उदायन) भी रानी की अनुवृत्ति से स्वयं मृदंग बजाता था। पूजा करते समय अरिहंत की छद्मस्थ, केवली और सिद्ध इन तीन अवस्थाओं की भावना करना। भाष्य में कहा है कि ण्हवणच्चगेहिं छउमत्थवत्थ पडिहारगेहिं केवलि। पलिअंकुस्सग्गेहि अ, जिणस्स भाविज्ज सिद्धत्तं ।।१।। प्रतिमा के ऊपर भगवान् को स्नान करानेवाले परिवार में रचे हुए जो हाथ में कलश ले हाथी ऊपर चढ़े हुए ऐसे देवता, तथा उसी परिवार में रचे हुए जो फूल की माला धारण करनेवाले पूजक देवता, उनका मन में चिंतनकर भगवान् की छद्मस्थ अवस्था की भावना करना। छद्मस्थ अवस्था तीन प्रकार की है। एक जन्मावस्था, दूसरी राज्यावस्था और तीसरी श्रामण्यावस्था—उसमें परिवार में रचित स्नान करानेवाले देवता के ऊपर से भगवान् की जन्मावस्था की भावना करना। परिवार में रचे हुए ही मालाधारक देवता के ऊपर से भगवान् की राज्यावस्था की भावना करना, तथा भगवान् के मस्तक व मुख का लोच किया हुआ देखने से भगवान की श्रामण्यावस्था (दीक्षा ली उस समय की अवस्था) तो सुख से ज्ञात हो सके ऐसी है। ऐसे ही परिवार की रचना में पत्रवेल की रचना आती है, वह देखकर अशोकवृक्ष, मालाधारी देवता देखकर पुष्पवृष्टि और दोनों ओर वीणा तथा बांसुरी धारण करनेवाले देवता देखकर दिव्य ध्वनि की कल्पना करना। शेष चामर, आसम आदि प्रातिहार्य तो प्रकट ज्ञात होते हैं। ऐसे आठ प्रातिहार्यऊपर से भगवान् की केवली अवस्था की भावना करना। पद्मासन से बैठे हुए अथवा काउस्सग्गकर खड़े हुए भगवान का ध्यानकर सिद्धावस्था की भावना करना। इति भावपूजा।। बृहद्भाष्य में कहा है कि पांच प्रकारी, अष्टप्रकारी तथा विशेष ऋद्धि होने पर सर्वप्रकारी पूजा भी करना। उसमें फूल, अक्षत, गंध, धूप, दीप, इन पांच वस्तुओं से
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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