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________________ 99 श्राद्धविधि प्रकरणम् करे', कहा है कि पुरुष दाहिना पैर आगे रखकर दाहिनी ओर यतना से प्रवेश करे, और स्त्री वाम पग आगे धरकर बायीं ओर प्रवेश करे। पूर्व अथवा उत्तर दिशा को मुख करके वाम नाड़ी चलते मौनकर सुगंधित और मधुर द्रव्य से भगवान की पूजा करनी चाहिए। इत्यादि वचन से कहे अनुसार निसीही कहकर, तीन प्रदक्षिणा करना तथा अन्य भी विधि सम्पूर्णकर पवित्र पाटले आदि आसन पर पद्मासनादिक सुखकारक आसन से बैठना। पश्चात् चन्दन के पात्र में से थोड़ा चन्दन अन्यपात्र में अथवा हाथ पर ले ललाट (कपाल) पर तिलककर तथा हाथ को स्वर्ण कंकण और चंदन का लेपकर तथा धूप देकर दोनों हाथों से जिनेश्वर भगवान् की अग्रपूजा, अंगपूजा तथा भावपूजा करनी चाहिए। तत्पश्चात् पूर्व में किया हुआ, धारा हुआ अथवा न किया हुआ हो तो जो लेना हो वह पच्चक्खाण भगवान् के सन्मुख उच्चरना। मूलगाथा - ६ विहिणा जिणं जिणगिहे, गंतुं अच्चेइ उचिअचिंतरओ। उच्चरइ पच्चक्खाणं, दढपंचाचारगुरुपासे ।।६।। भावार्थ: उपरोक्त गाथा में विधिना' (विधि से) यह पद है, उसे सब जगह मिलाना। यथा—पश्चात् विधि से जिनमंदिर जाकर, विधि से उचित चिन्ता (विचार) करता हुआ, विधि से भगवान् की पूजा करे। वह विधि इस प्रकार हैजो राजा प्रमुख भारी ऋद्धिशाली पुरुष हो तो 'सर्व ऋद्धि से, सर्वदीप्ति से, सर्व द्युति से, सर्व बल से, सर्व पराक्रम से' इत्यादि आगमवचन है, इससे वह पुरुष जिनशासन की प्रभावना के निमित्त सर्वोत्कृष्ट ऋद्धि से दशार्णभद्र राजा की तरह जिनमंदिर में जावे। सर्व ऋद्धि से जिनवन्दन में दशार्णभद्र का दृष्टान्त : जैसे दशार्णभद्र राजा 'पूर्व में किसीने वन्दन न किया हो ऐसी उच्च ऋद्धि से मैं वीर भगवान् को वन्दन करूं' ऐसे अहंकार से सर्वोपरि ऋद्धि सजाकर अपने अंतःपुर की स्त्रियों को सर्वांग में श्रृंगार पहनाकर, उत्तम हाथी, घोड़े, रथ, आदि चतुरंग सेना साथ में लेकर हाथीदांत की, चांदी की तथा सोने की पांचसो पालखियों के साथ श्री वीर भगवान् को वन्दन करने आया। उसका मद दूर करने हेतु सौधर्मेन्द्र ने श्री वीर भगवान को वंदन करने को आते हुए दिव्य ऋद्धि की रचना की। बहत ऋषिमंडलस्तव में कहा है कि-चौसठ हजार हाथी, प्रत्येक हाथी को पांचसो बारह मुख, प्रत्येक मुख में आठ दांत, प्रत्येक दांत में आठ बावड़ियां, प्रत्येक बावड़ी में लक्ष पंखुड़ी के आठ कमल, प्रत्येक पंखुड़ी के ऊपर बत्तीसबद्ध दिव्यनाटक, प्रत्येक कर्णिका में एक-एक दिव्य प्रासाद, और प्रत्येक प्रासाद में अग्रमहिषी के साथ इन्द्र श्रीवीर भगवान् के गुण गाता है। ऐसी ऋद्धि से ऐरावत हाथी ऊपर बैठकर आते हुए इन्द्र को देखकर जिसकी १. इस विधान से प्रत्येक घर में जिनमूर्ति आवश्यक है यह सिद्ध होता है। -
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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